Wednesday, January 22, 2014

समर अभी शेष है ...

देश की राजनीति मे "आम आदमी" का जुमला बड़ा प्रचलित और गरमागरम विषय हो चुका है। हर किसी की अपनी परिभाषाऐं ओर अपने मापदण्ड है। इस जुमलेबाजी और बौद्धिक बहसों से निर्लिप्त वे लोग है, जो सुनहरे भविष्य की तलाश मे अपने जीवन और परिवेश से जूझते, हारते, जीतते अपनी यात्रा जारी रखे हैं। जीवन के वसंत की मरीचिका का पीछा करता हमारा बसंतलाल भी है। बसंतलाल वही - जो आम है, भारतीय है, और जिजिविषा से भरा है। 
रायगढ से 25 किमी दक्षिण मे पूजीपथरा का औद्योगिक पार्क जहां खड़ा है, उसके नीचे बसंतलाल निषाद की तीन एकड़ जमीन हुआ करती थी। गांजे के शौकीन पिता लोधूराम ने ये जमीन मात्र तीस हजार मे किसी बिचौलिये को बेची थी, सो नौकरी मिलने का सवाल नहीं था। भाई आशाराम ने जहां ड्राइवरी का पेशा अपना लिया तो बसंत अपने मामा के गांव, खरसिया तहसील के गुरदा मे आ बसे।

छठवीं पास अकुशल व्यक्ति को देहात में काम क्या मिलता, सो खेतों मे मजदूरी शुरू की। एक डिसमिल जमीन लेकर एक झोपड़ी बनाई। फिर एक मवेशी विक्रेता ने उसे अपने लिए काम दिया। गांव देहात से मवेशी छांटकर वह सौदा करवाता, पशु बाजारों तक पहुंचाता और बदले मे थोड़ी दलाली मिलती।

एक दिन बसंत की पत्नी जम्बोबाई को पशुविभाग की ओर से कुछ चूजे मुफ्त मिले। घर मे इन्हे पाला गया। बसंत को कुछ रूचि हुई तो रायगढ़ जाकर विभाग के कुक्कुट पालन केन्द्र घूम आया। दिमाग मे योजना बनी, मगर पूंजी का टोटा था। गुरदा की जलग्रहण कमेटी कुछ लोन वोन देती है, ऐसा पता चला। सरपंज और कमेटी अध्यक्ष से बोल-बाल के केस बनवा लिया। बीस हजार का लोन मिला। बसंत ने अपनी झोपड़ी के एक हिस्से मे ही 200 चूजे रखे। इतने चूजे छोटे से कमरे मे समा नहीं पाते थे। तो किया ये, कि छोटे चूजे थोड़े बड़े हो जाते तो दूसरे कमरे मे शिफ्ट कर दिया जाता। और बड़े हो जाते तो बेच दिए जाते। देखने वाले को समझना मुश्किल था कि घर बसंत का है, या चूजों का। जैसे तैसे सारे चूजे बड़े हो गए, थोड़ी बहुत कमाई भी हुई , लोन भी चुक गया। मगर खास कुछ बचा नहीं। 
मगर चस्का लग चुका था। इस बार थोड़ी बड़ी पूंजी लगाने का इरादा था, जो जलग्रहण कमेटी के बूते से बाहर था। कोआपरेटिव मे बात हुई तो पता चला कि जमा के चार गुने के बराबर लोन मिल सकता है। सो जम्बों के गहनों की पिटारी गिरवी रखी गई। दस हजार का इंतजाम हुआ तो कोआपरेटिव मे जमा किया गया। नतीजतन चालीस हजार मिल गए। इस बार आंगन मे बाड़ा बनाया और 500 चूजे रखे। काम चल निकला। घर के पास मौलश्री के पेड़ पर निषाद मुर्गा फार्म का बोर्ड लग गया। रायगढ के "कौशिक सेठ" से सीधे डीलिंग शुरू हो गई। इधर जम्बो ने भी कुछ बकरियां पाल ली, सो इनसे भी कुछ कमाई बढ़ रही है। आंगन का बाड़ा तोड़कर बडा किया जा रहा है ताकि 1000 चूजे रखे जा सकें। बसंत अपने चूजों को बड़ी सफाई से रखता है, टीकाकरण करवाता है-एक रानीखेत का, एक डंगबोरो का और एक ठो और, जिसका नाम उसे नहीं मालूम है। अपने चूजों का वह विटामिन भी देता है।

बसंत अपनी कहानी सुना रहा था, कि मैने पूछ लिया - तुम्हारे कितने बच्चे हैं बसंत? 
बसंत के जोश मे ठहराव आ गया। बच्चे नहीं हैं साहब ... । वैवाहिक जीवन के दस-ग्यारह साल के बाद भी संतान न होना "ईश्वर की मर्जी" बताई गई। तभी पास खड़ी जम्बोबाई बगल की कोठरी मे गई, और गोद मे कुछ उठा लाई। गोद मे पड़े मासूम जीव सिमट रहा था, और चमकीली आंखो से देख रहा था। प्यारे से उस खरगोश को दिखाकर जम्बो बोली - इन्हें ही पाल रहे हैं साहब। अंदर दो बच्चे और हैं। उसकी आंखों मे "ईश्वर की मर्जी" को हरा देने का संतोष था।

 बसंत भी बगल मे जा खड़ा हुआ। मैने तुरंत कैमरे की ओर हाथ बढाया, आखिर एक क्लिक की तो बनती है। 


निकलते हुए मैने पूछा - बसंत, इस बार अच्छा कमा लोगे तो क्या खास खर्च करोगे।
 
-"जम्बों की गहनों की पिटारी को छुड़वाउंगा साहब.. "

बहरहाल, बीपीएल की सीमा और आम आदमी-खास आदमी की परिभाषा पर बहसें जारी है। मगर हमारा खास आदमी तो जीवन के वसंत की मरीचिका का पीछा करता हमारा बसंतलाल है। बसंतलाल वही - जो आम है, भारतीय है, और जिजिविषा से भरा है। जो रोटी रोजी, व्यवस्था और ईश्वर से लड़ रहा है, अपनी पत्नी के गिरवी रखे गहनों की पिटारी के लिए...

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Contributed By Manish Singh

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