पुलिस, प्रेस और समाज के अंतर्सबंधों पर अपनी बात की शुरूआत एक आपबीती से करना चाहता हूं। तीन चार साल पहले, सुबह आठ बजे के करीब, गेट जोर से भड़भड़ाने से नींद खुली। दरवाजा खोलने मे कुछ विलंब हुआ, देखा, तो दो पुलिसवाले खड़े थे। एक मोटरसायकल से टिककर खड़ा था, दूसरा मुझसे मुखातिब था। आसपास मोहल्ले वाले उसने सशंकित से अपने अपने दरवाजो पर खड़े थे।
एक पुलिसवाले ने पूछा - मनीष सिंह यही रहते है।
मैने कहा - हां,।
-भेजिए उनको।
-मै ही हूं।
-आपने पासपोर्ट एप्लाई किया है -उसने डांटा
-जी ।
-11 बजे थाने आ जाइये। साहब आपसे मिलेंगे।
वे रूखसत हुए और मैने चैन की सांस ली। ज्यादा क्यूरियस पडोसियों को बताना पड़ा, "कुछ नहीं पासपोर्ट की इनक्वायरी है।"
हमारे समाज मे पुलिस का आगमन अनिष्ट और अवांछित घटना का प्रतीक है। पुलिस से नजदीकी कम लोगों को हासिल है और ये नजदीकी ताकतवर और विशिस्ट होने का प्रतीक है। ज्यादातर पुलिस का नाम भय का संचार करता है। सो पहला सवाल तो यही है की पुलिस भय का प्रतीक क्यों है? पुलिसवाले भय का प्रतीक क्यों है? मजे की बात यह है कि जिन्हें कानून का भय नहीं है उन्हें पुलिसवालो का भय अवश्य है।
भय का विपरीतअर्थी है सुरक्षा का अहसास, रेअस्योरेंस। स्काटलैण्ड, अमेरिका और आयरलैण्ड मे शेरिफ एक अधिकारी होता है जिस पुलिस के समकक्ष माना जाता है। शेरिफ शब्द का उच्चारण भय संचारित नहीं करता, बल्कि सुरक्षा और व्यवस्था कायमी का अहसास देता है। शेरिफ रिअशयोरिंग है, पुलिस इन्टीमिडेटिंग। शेरिफ की भूमिकाओं का विस्तार पुलिसिंग, कानूनी और कुछ हद तक समाज मे पितृपुरूष जैसी बनाई गई है। हमारी पुलिस मे इसका अभाव है। शेरिफ का जनता से सामना और सपर्क, नियमित रूप होता है, हमारे यहां इसका अभाव हैं। शेरिफ मुस्कुराता हुआ हो सकता है, मगर हमारी पुलिस मे इसका भी अभाव है। संपर्क और रिश्ते का ये अभाव भय, दूरी और आशंकाओ का जन्म देता है।
किसी बल की जवाबदेही किसके प्रति है, यह भी एक फैक्टर है। सिद्धांततः प्रजातांत्रिक व्यवस्था मे हर ताकत को जनता के प्रति जवाबदेही होती है। मगर अद्यतन इतिहास को देखें तो यह महसूस होगा कि हमारी पुलिस मात्र शासक वर्ग, या कहें सत्ता के प्रभुओं के प्रति जवाबदेह है। अनेक प्रकरण देखे गए है जहाँ सत्ता मे प्रभावशील व्यक्ति या व्यक्तियों के हितों की पूर्ति के लिए पुलिस बल का प्रयोग वैधानिक गुडें (क्षमा करें), या मसलमैन, या निजी जासूस, के रूप मे प्रयोग होता दिखा है। सीबीआई, जो केन्द्र सरकार की एक पुलिस संस्था मानी जा सकती है, उसके बारे मे सुप्रीम कोर्ट की तोता वाली टिप्पणी, इस प्रकाश मे देखी जा सकती है।
पुलिस एक बल है, प्रजातांत्रिक व्यवस्था के अंदर कार्यरत बल है, तो समानता के अधिकार पर पर होना लाजिमी है। पुलिस एक्ट मे संशोधनों की बातें 40 साल से हो रही है, मगर अब तक अंग्रेज प्रभुओं, या उनके साथियों की सेवा की परिपाटी और व्यवस्था अक्षुण्ण बनी हुई है। इसलिए एक नेटिव इंडियन के लिए तो पुलिस का वैसा ही भय आज भी कायम है, जो अंगे्रजों के जमाने मे था। यहीं रायगढ़ जिले के अनेक औद्योगिक मामलों मे जनता के असंतोष को बलपूर्वक दबाने का प्रयत्न होता रहा है। वही ताकतवर लोगों के खिलाफ मामला दर्ज हो जाना बहुत बड़ी बात है। दिनदहाड़े हमारे शहर मे एक सामाजिक संस्था कार्यकर्ता को घर मे गोली मार दी गई, आज तक कोई सजा नही हुई। जब न्यायोचित कृत्य और प्रभुसत्ता के हित मे किसी का का चयन करने की नौबत आती है, तो ज्यादातर चयन किसका होता है कहने की जरूरत नहीं। तो न्यायोचित के प्रति संवेदनहीनता पुलिस को और दूर करती है। हाल मे दिल्ली पुलिस और दिल्ली सरकार के बीच घटनाक्रम इसे और विस्तार से परिभाषित करते है। दिल्ली की घटना कहती है कि ट्रांसफर, सस्पेंशन जैसे अधिकार आपके पास नहीं हैं तो राज्य निर्वाचित मुख्यमंत्री को भी अंगूठा दिखाया जा सकता है। आम आदमी की तो छोड़ दीजिए।
बल या बलशाली यदि न्यायोचित व्यवहार करता है, आश्रितों से समानता का व्यवहार करता है तो राम कहलाता है, कृष्ण की तरह पूजा जाता है। दूसरी ओर रावण से हिटलर के उदारण है जो भय और नफरत की भावना जगाते है। हमारे साथी नागरिक जो रातों को जागकर पढे थे, सुबह उठकर दौड़ने और सीना फलाने की प्रेक्टिस करते थे, और सफल होकर पुलिस बल का हिस्सा बने , उन्हे पुर्नविचार करना चािहए कि बल का हिस्सा होकर उन्होने न्यायोचित व्यवहार किया या दूसरा विकल्प अपना रहे हैं।
तार्किकता और तकनीक का प्रयोग भी जरूरी है। एक मशहूर चुटकुला है जिसमे ब्रिटिश पुलिस, जंगल मे छुपे शेर को सेटेलाईट तकनीक से दो घण्टे में, तो अमरीकन पुलिस फेरमोन विश्लेषण द्वारा एक घंटे मे खोज निकालती है। भारत की पुलिस तीन दिन तक वापस नहीं आती। आब्जर्वर्स जाकर देखते हैं, तो पाते हैं कि पुलिस एक बंदर को पेड़ पर उल्टा लटका कर पीट रही है, और कह रही है कि कबूल कर कि तू ही शेर है। ये एक चुटकुला मात्र है, मगर भारतीय पुलिस की जनमानस मे छवि को रेखांकित करता है।
पुलिस की उपस्थिति क्राइम कन्ट्रोल के अलावे दूसरे कानूनों मे कम दिखती है। संसद और राज्य साल दर साल 20-30 कानून बनाते हैं। पर आइपीसी , सीआरपीसी तक ही पुलिस की रूचि देखी जाती है। पाल्यू’ान, फारेस्ट और सामाजिक न्याय के विषयों मे पुलिस कर प्रोएक्टिव कार्यवाही कम देखने को मिलती है। विगत वर्ष कन्या भू्रण हत्या को लेकर जिले मे जागरूकता का वातावरण तैयार हुआ था। पीसी पीएनडीटी एक्ट को लेकर काफी चर्चाएं की गईं। मगर आज तक एक भी प्रकरण दर्ज नहीं हुआ है। जिले मे पेसा एक्ट उल्लंघन के अनेक घटनाऐं हैं, मगर कभी जुर्म दर्ज नही हुआ। ऐसे प्रकरणों मे पुलिस का दखल यदि दिखेगा पुलिस का सम्मान निश्चित रूप से बढेगा ही ।
यदि व्यवस्था को खुला और पारदर्शि करना है, पुलिस को शेरिफ की तरह रिअश्योरिंग होना है तो सामाजिक प्रजातांत्रिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करना ही होगा, दूरी और भय को घटाना होगा। इसका कोई विकल्प नहीं है। यहीं प्रेस की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है।
प्रेस पजातंत्र का चौथा स्तंभ, पहले से कहा जाता रहा है। समाज के विचार को प्रभावित करने वाला सबसे ताकतवर फैक्टर प्रेस है। इलेक्ट्रानिक युग मे प्रेस के लिए मीडिया शब्द का भी इस्तेमाल होता है। मीडिया मतलब है माध्यम। ऐसा माध्यम जिसके सहारे विचार प्रवाहित हों, संप्रेषित हों और दूसरे के मष्तिष्क को प्रभावित करें। समाज के तमाम सामाजिक राजनैतिक नागरिक मुद्दों को निष्पक्षता के साथ, सरोकार ओर सवेदनशीलता के साथ संप्रेषित करना, प्रेस और मीडिया से अपेक्षित है।
पुलिस हो या न्यायपालिका, कार्यपालिका के अन्य विभाग, इनके उपयोग और विचार के लिए जनआंकांक्षाओं को ठीक ठीक तरीके से रखना, मुद्दे और बहस को समाने लाना, और उचित वि’लेषण कर प्रजातंत्र की, आम आदमी की और समानता के अधिकार की रक्षा कर सकती है। बहुत हद तक भारतीय प्रेस ने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया है, लोकतंत्र को मजबूती दी है। हाल ही मे मीडिया, तकनीकी क्रांति के कारण अधिक सशक्त हुआ है। लोगों तक इसकी पकड़ और पहुंच निरंतर बढ़ी है। बहुत तेज विस्तार भी हुआ है। इस तेज विस्तार और बढती हुई ताकत ने प्रेस को एक ऐसे राह पर ला खड़ा किया है जहां से उस पर निहित स्वार्थों की नजर गड़ी है। इस ताकत को टेम करने, कब्जा कर लेने और इसका मनमाफिक इस्तेमाल करने के इच्छुक, थैलियां लेकर शिकार पर निकल पड़े है।
मीडिया हर तरह के विचार का संवाहक है। उत्पादन करने वाले से उपभोक्ता तक, सत्ता आंकाक्षी से वोटर तक, राजा से प्रजा तक बड़े विस्तार से बात को पहुंचाना और अनुकूल या प्रतिकूल माहौल निर्मित करना मीडिया के नियंत्रण मे आ गया है। सवाल यह है कि मीडिया अपनी भूमिका उत्पादक से उपभोक्ता तक पहुचाएगा या उपभोक्ता की जरूरत उत्पादक तक, क्या वह वोटर की जरूरत को सत्ता आकांक्षी तक पहुचाएगा या सत्ता के व्यक्तव्यों को शासित तक। क्या वह प्रजा की मांग को तवज्जो देगा राजा के आश्वासनो को। मीडिया की पहचान, मीडिया गु्रप की पहचान, अखबार या चैनल की पहचान और छवि इसी पर निर्भर करेगी उसने किसको तवज्जो दी।
पहचान और छवि के औजार है खबर और विश्लेषण । मगर वह इन औजारो का प्रयोग तब करेगा जब वह सर्वाइव करेगा। सर्वाइवल का औजार है विज्ञापन, पेड न्यूज और ऐसी चीजे जिससे पैसा आता हो। यहां पर चयन हर एक मीडिया कर्मी, प्रकाशन और मीडिया हाउस को करना है पहचान और छवि के औजारो को तवज्जो देगा, या सर्वाइवल के हथियारों को। उनका रोल माडल कौन होगा, इसके चयन मे सावधानी हो।
एक समस्या यह है कि प्रजातंत्र के तीन स्तंभों का हिस्सा बनने के लिए अपनी योग्यता को साबित करने की प्रतिस्पर्धा होती है। यूपीएसी के एक्जाम देकर, चुनाव लड़कर एक स्तर के उपर के ही लोग चयनित होते है। कोई यूंही उसका भाग नहीं बन सकता । मगर चैथे स्तंभ का हिस्सा बनने के लिए कोई संघर्ष नहीं है। कोई मानदण्ड नहीं है। यह खुला मैदान है। इसका फायदा वे प्रभुत्वशाली उठा रहे हैं, जो चाहते है कि मीडिया की ताकत उनकी मुट्ठी मे हो।
कार्पोरेटटस, राजनैतिक दल, व्यवसायी सभी मीडिया हाउस बनने को लालायित है, उनके मालिकाना हको को खरीद रहे है। मगर इनके मोटिव संदिग्ध है। इनके मोरल्स संदिग्ध है। मीडिया के अनेक प्रतिभाशाली और सम्मानित रोल माडल भी फिसल रहे है। यह एक ऐसा संघर्ष है, आग का दरिया है जिससे डूब कर हर मीडियाकर्मी को जाना है। इस अग्निपरीक्षा का भाग बनना हर प्रेसवाले की नियति बन गई है। मगर याद रखिए - आप वहीं होगे, जो बनने का निर्णय आप करेंगे।
रायगढ़ के खास संदर्भ मे एक बात कहना चाहुगा। मेरे एक पत्रकार मित्र ने बताया कि किसी बड़े अधिकारी से मिलकर उन्होने परिचय दिया, कि वे पत्रकार है, एक्स अखबार से है। अधिकारी ने अपने कंप्यूटर से नजर हटाए बगैर पूछा - पत्रकारिता के अलावा आपका और बिजनेस क्या है ? विशुद्ध पत्रकार जीव इसका उत्तर देने मे असफल रहे।
मै यहां बैठे हर उस पत्रकार को बधाई देना चाहूंगा जो इस सवाल का उत्तर देने मे असफल होगा। ऐसे पत्रकारों की संख्या मे वृद्धि ही हमारे प्रजातंत्र को मजबूत करेगी। ऐसा मीडिया हमे स्वस्थ प्रजातंत्र दे सकेगा और समानता के अधिकार की पैरवी कर सकेगा।
इस आयोजन और अपने विचार रखने का मौका देने के लिए मै किरणदूत परिवार को धन्यवाद देता हू
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Speech given by Mr Manish Singh, Secretary JanMitram. Views Given are his personal.
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