जब छोटा था, तो पिताजी के सामने जाने की हिम्मत नहीं होती थी। वह जिस कमरे में बैठते, उस कमरे से बचता था। पिताजी से बात कहनी होती, तो मां का सहारा लेता। वह हमारे बीच में डाकिये की भूमिका निभाती और मेरे लिए वकील बन जाती। उनसे जिरह करने का साहस मेरे फरिश्तों में भी नहीं था। यही हाल मेरे दोस्तों का भी था। पिताजी मुझसे बेहद प्यार करते थे। लेकिन यह कभी उन्होंने कहा नहीं और न ही मैंने यह कभी जानने की कोशिश की। यह रिश्ता दोनों तरफ से मूक था। इसमें एक अजीब किस्म की अजनबियत थी। वह बोलते कम, हुक्म ज्यादा सुनाते थे। मेरी जिंदगी के सारे फैसले वही करते। मानने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं था। लेकिन मेरे जवान होते ही दुनिया बदलने लगी। पिता दोस्त बन गए। उनके सामने बैठना, उनसे गप्पें मारना सामान्य-सी बात हो गई। हम स्कूल की फीस मांगने में झिझकते थे, आज के बच्चे डैड से रिलेशनशिप पर बात करने से नहीं सकुचाते। पीढ़ी बदल गई, रिश्ते बदल गए। हमारी पीढ़ी में रिश्ते समूह से तय और निर्धारित होते थे। परिवार बड़ा था, व्यक्ति छोटा। रिश्तों में बराबरी नहीं, एक हायरार्की थी।
ऐसे में जब मैंने पिछले दिनों जिंदगी न मिलेगी दुबारा फिल्म देखी, तो रिश्तों का एक नया संसार दिखा। समूह नहीं, व्यक्ति दिखा। न परिवार बड़ा, और न व्यक्ति छोटा। दोनों बराबर। व्यक्ति परिवार के सामने सरेंडर नहीं करता। बेटा और बाप, दोनों को पता है कि जिंदगी सिर्फ एक बार ही मिलती है। और उसे अपने तरीके से ही जीने में मजा है। फरहान खान पूरी फिल्म में अपने पिता से मिलने की ख्वाहिश लिए अपने दोस्तों के साथ स्पेन जाता है। उसके पिता और उसकी मां के बीच जवानी के दिनों में एक रिश्ता बन गया था। उस रिश्ते ने फरहान को जन्म दिया। लेकिन पिता नसीरुद्दीन शाह शादी के लिए तैयार नहीं थे, जबकि मां को प्रेमी के साथ पति भी चाहिए था। नसीर ने शादी पर अपनी ख्वाहिशों को तरजीह दी। उन्हें पेंटिंग्स बनानी थी। दुनिया देखनी थी। अपने हिसाब से जिंदगी का मजा लेना था। फरहान उनकी जिंदगी को सीमित कर रहा था। उनके सपनों को धूमिल कर रहा था। लिहाजा वह अपने रास्ते पर चल पड़े और घूमते-घूमते स्पेन जा पहुंचे। इस दौरान फरहान की मां ने एक दूसरे शख्स से शादी कर ली। फरहान उन्हें अपना बाप मानता रहा, लेकिन जिस दिन उसे असलियत पता चली, वह अपने असली बाप से मिलने को मचल उठा। मां ने समझाया, पर वह नहीं माना।
नसीर अपनी दुनिया में मस्त थे। उन्होंने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि बेटा कैसा है। एक पल के लिए भी वह बेटे के रिश्ते में नहीं बंधे। वह बड़े पेंटर हो गए। उनकी अपनी अलग दुनिया थी। फरहान की तड़प जिंदा रही। वह स्पेन में अपने पिता को खोजता है। फिल्म चलती रहती है और उसकी तलाश भी। आखिरकार वह अपने पिता से मिलता है। दोनों अकेले। सिर्फ नसीर और फरहान। भावनाओं का कोई ज्वार नहीं। आंसुओं का कोई रेला नहीं। फरहान जानने को बेताब कि क्या कभी उसके पिता को उसकी याद आई? कभी उससे मिलने को उनका दिल तड़पा? नसीर बहुत संतुलित...स्थिर...शांत, कोई नाटकीयता नहीं। कहा, तुम मुझे सलमान कहके पुकारो। वह आगे बोले, तुम्हारी मां शादी करना चाहती थी और मैं अपने सपनों को छूना चाहता था। दोनों के बीच कोई रिश्ता नहीं बनता था। फरहान थोड़ा निराश होता है, भावुक भी। लेकिन वह भी स्थिर है, शांत। कोई नाटकीयता नहीं। नसीर फिर कहते हैं, न मैं तब तुम्हारी जिम्मेदारी लेना चाहता था और न आज। नसीर ने एक वाक्य में रिश्ता बनने से पहले ही रिश्ता तोड़ दिया। हिंदी फिल्मों की तरह फरहान की आंखों से आंसू नहीं निकले। न उसने अपने पिता को कोसा। न कोई गिला, न शिकायत। न अमिताभ बच्चन की तरह नाजायज होने का दर्द। वह बाहर चला आता है। दोस्तों से मिलता है। सब कुछ सामान्य। वे सड़क किनारे रात गुजारते हैं। फरहान को नींद नहीं आती। रितिक रोशन सुबह उठता है। फरहान को देखता है। फरहान उससे कहता है कि मुझे सलमान के पास नहीं जाना चाहिए था। यानी उसे अपने पिता से मिलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए थी। वह आहत है, लेकिन कंप्लेन नहीं करता। न अपने पिता को कोसता है। वह खुद से नाराज जरूर है, लेकिन अपने पिता की 'इंडिविजुअलिटी' को वह स्पेस देता है। उनके फैसले की इज्जत करता है।
पिता-पुत्र का यह रिश्ता हिंदी फिल्मों के लिए बिल्कुल नया है। जायज और नाजायज से परे। अमिताभ बच्चन की दर्जनों ऐसी फिल्में हैं, जहां नायक शुरू से अंत तक अपने को जायज ठहराने की जद्दोजहद में जीता है। त्रिशूल के अमिताभ और संजीव कुमार का संबंध। अमिताभ की नजर में उसके पिता ने उसकी मां के साथ धोखा किया। पिता को सजा मिलनी चाहिए। अमिताभ बदला लेने के लिए संजीव कुमार का कारोबार चौपट कर देता है। अमिताभ कुंठित बेटा है। रिश्तों के चक्रव्यूह में पिता की मजबूरियों और उनके निजत्व का उसके लिए कोई मतलब नहीं है। समाज बड़ा है, रिश्ते बड़े हैं। व्यक्ति और उसकी ख्वाहिशें छोटी हैं। फरहान कुंठित नहीं है। उसे अफसोस बस इतना है कि उसने क्यों किसी के प्राइवेट स्पेस में दखल दिया।
उसके मां-बाप को अपनी तरह से जिंदगी जीने का हक है और उसे अपनी तरह से। मां-बाप के बीच के रिश्ते को उसे नए सिरे से डिफाइन करने हक नहीं है, न ही उसे अपने को अपने पिता पर थोपने का अधिकार है। वह उनसे पूछता जरूर है, वह उसे अपनाएंगे या नहीं, बाप-बेटे के रिश्ते का नाम देंगे या नहीं? लेकिन यह एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से संवाद है। पुरानी दुनिया में रिश्ते 'डिफाइन' नहीं होते थे, वे 'डिफाइंड' थे। उन पर सवाल नहीं होता था। उन रिश्तों को तोड़ना अपराध था। त्रिशूल का अमिताभ यह सहन नहीं कर सकता कि उसका पिता उसकी मां को छोड़ दे। मैंने अपने पिता से कभी सवाल नहीं किया कि उन्होंने मेरी जिंदगी का कोई फैसला क्यों ऐसे किया? मेरे रिश्ते में सवाल पूछने का अधिकार नहीं था। वह 'टेकेन फॉर ग्रांटेड' था। नए समाज में कुछ भी 'टेकेन फॉर ग्रांटेड' नहीं है। न जिंदगी और न रिश्ते। पिता और बेटा, दोनों की अपनी-अपनी जिंदगी है। उसे अपने हिसाब से जीना है। अब किसी बेटे को अपने बाप के सामने जाने से डर नहीं लगता। फरहान और जोया, रिश्तों का नया संसार दिखाने के लिए शुक्रिया।
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