Sunday, April 27, 2014

रमन्ते यत्र देवता ....

रायगढ खरसिया मुख्य मार्ग पर पर कुनकुनी बसा है। यह एक बड़ी बस्ती है, जिसमे कई मुहल्ले हैं। पहाड़ी की ओर बसे मोहल्ले मे जाने के लिए पतली और टेढ़ी मेढ़ी गलियों से होकर गुजरना होता है। इन गलियों की चौड़ाई बस इतनी है कि एक बैलगाड़ी ही निकल सकती है। गांव मे घर आंगन और सड़क पर मे जगह जगह महुआ डोरी सुखाया दिखता है। यहीं तालाब के पास उमा का घर है।

नवदुर्गा समूह की सदस्य उमा का घर उसकी पहली कोठरी मे खुली दुकान की वजह से पहचान सकते है। घर मे दो बच्चे और सास ससुर है। बच्चे गांव के ही स्कूल मे पढ़ते है। कोठरीनुमा दुकान मे एक फ्रिज रखा है, मनिहारी सामान के साथ ही धान की कुछ बोरियां रखी है। यही बातचीत शुरू होती है। 


नवदुर्गा समूह वैसे तो पांच छह साल पुराना था मगर सदस्यों मे सामंजस्य न होने के कारण टूट गया था। जनमित्रम के स्थानीय कार्यकर्ता नंदकि’ाोर ने इन्हे पुनः जोड़ा। साल भर से समूह फिर सक्रिय हुआ है। समूह मे सीतल (अध्यक्ष), कौ’ाल्या (सचिव) एवं उमा, अनुसुइया, बुन्द्राबाइ्र एवं चन्द्रोबाई सदस्य है। समूह के सदस्य मिलकर 1200 रू प्रतिमाह बचत जमा करता है। गांव की जलग्रहण समिति के सहयोग से इन्हें सत्तर हजार रूपये का ऋण मिला है। 

उमा ने पच्चीस हजार लिए है जो दुकान मे सामान, चावल की आढ़त व फ्रिज खरीदने मे लगाया गया है। कुछ रकम घर की बाड़ी मे शाकभाजी लगाने पर व्यय किया है। उमा की बाड़ी मे मक्का, केला, और सागभाजी की फसल लगी है। इस ऋण ने इनकी आय मे माह मे तीन-चार हजार का इजाफा किया है। 



समूह की अध्यक्ष सीतल को धान उत्पादन के लिए पच्चीस हजार की मदद मिली है। पहाड़ी के नीचे अपनी लंबी चैड़ी जमीन के एक टुकड़े पर ही फसल लेने को मजबूर सीतल ने इस बार पूरे छह एकड़ मे खेती की है। धान मे बालियां आ गई हैं। सब खर्च काटकर साठ से सत्तर हजार रू की शुद्ध कमाई का अनुमान है। समूह की सदस्य कौशल्या के परिवार का मनिहारी का काम है, जो आसपास के बाजारो मे घूमकर किया जाता है। उसने बीस हजार का का ऋण लेकर अपने व्यवसाय मे लगाया है। 




उमा के घर से कुछ दूर फूलबाई सागर का घर है। फूलबाई सांई स्व सहायता समूह की सचिव है। समूह अध्यक्ष ईश्वरी के साथ गायत्री , फोरकुंवर,गंगाबाई , सौकमती, कमलेश्वरी और सरोज इसके सदस्य है। इस समूह ने मिलकर बकरीपालन शुरू किया है। कुल पचास हजार के निवेश से बकरियां खरीदी गई हैं। इनमे से कई बच्चे देने वाली है। सात आठ माह बाद इनकी बीस बाइस बकरियां पांच हजार के न्यूनतम मूल्य पर बिक जाएँगी ।




नंद किशोर इन महिलाओं की प्रगति और अनुशासन से बड़े प्रभावित है। शुरूआत मे उन्हें महिलाओं को जोड़ने मे सर्वाधिक कठिनाई इसी गांव मे आई। मगर साई ओर नवदुर्गा की उमाओ और गायत्रिओ ने नई धारा प्रवाहित कर दी है। इनसे अन्य परिवार भी जुड़ने के लिए उत्साहित हुए है। कई घरों मे पुरूषों के द्वारा महिलाओं को समूहों मे जुड़ने का उपहास करना बंद कर, प्रोत्साहन दिया जाने लगा है। कमाई का वैकल्पिक स्रोत बनने से महिलाओं का दर्जा भी बढ़ा है। 



महिलाओं की सम्मान बढ़ा है तो यकीनन यहां तरक्की के देवता भी विराजेंगे।
“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता”

राठिया एण्ड संस की उद्यमी अधीरता

बड़े डूमरपाली की मुख्य बस्ती से दो किमी दूर, मुख्य मार्ग से हटकर कच्चा रास्ता है। इस रास्ते पर लगभग पांच सौ मीटर बढिए। अप्रेल की गरमी मे जहां चारो ओर सूखी जमीने हों, मगर भूमि का एक टुकड़ा रेगिस्तान मे नखलिस्तान की तरह दिखाई दे। जहां मूंगफली, मिर्च, टमाटर, आलू की खेती के बीच सिर उठाए सूरजमुखी के फूल आखों को सुहावनी छटा दें , तो समझिए कि बाबूलाल राठिया का खेत यही है।


खेत के बीचोबीच एक झोपड़ी है, जिसमे बाबूलाल स्वयं अथवा उसके परिवार के सदस्य चैबीसो घण्टे पहरा देते हैं। यह क्षेत्र बन्दरों और मवेशियों के प्रकोप के कारण धान के अलावे अन्य किसी फसल के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता था। मगर राठिया एण्ड संस के आगे मवेशी और बंदरो की क्या बिसात। फिर अगर कुछ कसर थी तो जलग्रहण विकास कार्यक्रम ने पूरी कर दी।


एक नजर मे हरा भरा यह टुकड़ा 6 एकड़ से अधिक का दिखाई देता है। तीन साल पहले ऐसा नहीं था। बाबूलाल यहां लगभग 3 एकड़ भूमि मे धान की खेती करते थे। इस जगह से बमुश्किल पचास साठ हजार की आय होती थी। जलग्रहण कार्यक्रम से जुड़ने पर लगभग डेढ़ एकड़ भूमि को समतल कर कृषि योग्य बनाया गया, साथ ही मेड़बंदी भी कराई गई। जब मजदूर लगे थे तब साथ ही साथ खुद पूरे परिवार ने जुटकर अतिरिक्त भूमि को भी उपयोगी बना लिया। अभी लगी हुई सारी फसल से लगभग 2 लाख रूपये की कमाई का अनुमान है। 


"हमर बाबू के 19 एकड़ जमीन रहिस, सब ला पिए पाए मे गंवा दारिस"; 


बाबूलाल बताते हैं कि आधी से कुछ कम जमीन, पिता डेरिहा राठिया की शराब की आदत की भेट चढ़ गई। बिकने वाली जमीने खेती योग्य थी, बेकार टुकड़े बचे थे। अपने पुत्रो, सुशील और सुरीत के साथ मिलकर, अपनी जमीन को संवारा है। उधार पर बोर करवाया जो इस फसल के बाद चुका दिया जाएगा। बिजली का कनेक्शन टेम्प्रेरी है जिसे भी परमानेंट कराना है। 


अभी भी भूमि का एक टुकड़ा बेकार है। बाबूलाल ने इसे ईंट भट्ठे के लिए किराए पर दे दिया है। जमीन भी बढे+गी और कुछ पैसा भी आ जाएगा। परिवार मे यामदती, जो पुत्रवधू है, भी बड़ी मेहनती है। गांंव की बूढ़ी मां समूह की सचिव है। यह समूह भी ग्राम जलग्रहण समिति के चक्रधर डनसेना द्वारा प्रेरित है जिसमे 11 सदस्य है। यादमती अपने समूह की मदद से ऋण लेकर, घर के पास की बाड़ी मे सागभाजी उगाया है। छोटा पुत्र सुरीत टैªक्टर ड्राइवरी करता है और खेती मे भी हाथ बटाता है। पत्नी सुमित्रा खेती और रखवाली मे हाथ बटाती है। 


पिछले कुछ सालों से घर मे समृद्धि आई है आगे का भविष्य सुखद आशाओं से भरा है। मगर इसे जल्द हासिल करने की अधीरता भी है। बाबूलाल मुझे ट्विस्ट दिया - " ये आषाढ़ मे मोला 60 हजार के लोन दिलावा।" और मिनटो मे उस लोन की आव’यकता, खर्च, मुनाफे और किश्त पटाने की समय योजना सुना दी। हमारी समस्या थी कि सामान्यतः जलग्रहण के तहत 25000 से अधिक के ऋण नहीं दिए जा सकते, और न ही एक लाभार्थी को बारंबार फायदा दिया जा सकता है। फिर भी आश्वाशन देकर रवानगी ली। 



देश के खरबपति उद्यमी मुकेश अंबानी ने एक स्पीच मे कहा था कि उद्यमशील व्यक्ति, अपने भीतर और आसपास, एक उद्यमी अधीरता का वातावरण बनाकर रखते है। ये अधीरता न सिर्फ लक्ष्यों को पाने मे मदद करती है बल्कि उसकी प्राप्ति का समय घटा देती है। बाबूलाल राठिया मे भी वही उद्यमी अधीरता नजर आती है। 


फिर क्या हम ये मानें कि राठिया एण्ड सन्स की सफलता की कहानी यहां खत्म नहीं होती !!!! 


तो कहानी अभी बाकी है मेेरे दोस्त ....।

विकास के चक्रधारी

भारतीय पुराणों मे कृष्ण एक विलक्षण किरदार हैं। महाभारत का संपूर्ण समर कृष्ण के इर्दगिर्द, उनकी रणनीतियों पर घूमता है। बगैर सेनापति हुए, बगैर शस्त्र धारण किए कृष्ण ने अपने पक्ष नेतृत्व किया। कमजोर क्षणों मे अपने लोगों का उत्साह बढ़ाया और सीमित संसाधनों का बेहतरीन प्रयोग किया। महान मनुष्य ही कालांतर मे किवदंतियों का आधार बनते बनते देवता का दर्जा पा जाते है।  

उंगलियों पर सुदर्शन चक्र घारण किए हुए श्रीकृष्ण, चक्रधर भी कहलाते है। बडे डूमरपाली निवासी चक्रधर डनसेना भी सिर्फ नाम में ही अपने आराध्य के अनुगामी नही है। 

मुबई हावड़ा रेलमार्ग पर छोटे से स्टेशन, राबर्टसन से 2 किमी दूर बसा है बड़े डूमरपाली। मांड के किनारे इस गांव के पूर्व गौटिया बच्चूराम डनसेना के ज्येष्ठ पुत्र चक्रधर है। शिक्षा इनकी बारहवीं तक है। ग्राम के सामाजिक कार्यों मे सदा भागीदारी देने वाले चक्रधर को 2012 मे ग्रामसभा ने सर्वसम्मति से जलग्रहण कमेटी का अध्यक्ष चुना। इस कमेटी का गठन, भारत शासन और छत्तीसगढ सरकार द्वारा प्रायोजित भूजल संरक्षण कार्यक्रम संचालन करने के लिए है। 

चक्रधर डनसेना ने जनमित्रम द्वारा आयोजित कुछ प्रशिक्षणों में कार्यक्रम की संपूर्ण समझ बनाई। फिर कमेटी के अपने साथियों सत्यनारायण, जानकीबाई, भरतलाल, कोसाबाई आदि के साथ जुट गए। सबसे पहली समस्या थी पेयजल की.. सो कमेटी ने इसकी स्थाई व्यवस्था निर्णय लिया। बीच बस्ती के लिए अंबेडकर नगर के लिए बोर और पानी टंकी का प्रस्ताव किया गया। जिला पंचायत से स्वीकृति तो हुइ, मगर बजट सीमा के कारण दो टंकी और मात्र एक बोर की। मुख्य बस्ती मे पहली टंकी बनी और कलकल करते जल से पूरा गांव ख़ुशी से झूम उठा। 

चक्रधर डनसेना ने इस दौरान गांव मे भू-जल संरक्षण की योजना बनवाई। ग्रामीणों ने अपने पारंपरिक ज्ञान का प्रयोग किया तो जनमित्रम ने भी ग्राम का जियो-सेटेलाइट आधारित जलअपवाह अध्ययन प्रस्तुत किया। मिलकर पानी रोकने की रणनीति बनी। नदी के किनारे बसे होने के कारण अधिकांषतः  मेड़बंदी और बंड निर्माण करने की आवशयकता थी। 


प्रथम चरण की योजना पास होकर फंड कमेटी के पास आ गया तो बंड निर्माण के कार्य शुरू हो गए। बाबूलाल, सोहनलाल गणपति और श्रीतम आदि के खेतो मे सर्वप्रथम कार्य हुआ। चक्रधर ने अनोखी नीति अपनाई। बंड के निर्माण के लिए आवश्यक मिट्टी की खुदाई ऐसे स्थान से कराई कि जिससे गरीब किसानों के खेतों का रकबा बढ़ गया, अर्थात एक पंथ दो काज। इनके द्वारा निर्मित बंड से लगभग 14 एकड़ भूमि का ट्रीटमेण्ट हुआ तो 3 एकड़ से अधिक भूमि कृषि उपयोग मे बढ़ गई।  

मगर अंबेडकर बस्ती मे बोर के बगैर पास हुई टंकी का मसला उन्हे बेचैन किए हुए था। कुछ दूरी पर पुराने डिफंक्ट बोर मे पंप और सफाई कराकर सक्रिय किया जाए तो बात बन सकती है। भूमि सुधार मे कृषक अंशदान की राशि बढाई गई। साथ ही सुधारी गई भूमि के कृषको से भी सहयोग मांगा गया। देखते ही देखते यह टंकी भी बनी और अंबेडकरनगर मे भी जलधारा का प्रबंध हुआ और तीस परिवार लाभान्वित हुए। 


भूमिधारियों को लाभ मिला तो भमिहीनों के लिए भी कुछ किया जाना था। गांव मे तीन स्व सहायता समूहों का गठन हुआ। समूहों को कमेटी के माध्यम से ऋण दिया गया। कार्तिकलाल और उसकी पत्नी सुशीला ने 17000 रूपये लिए और एक दुकान खोल ली. अब दिन का डेढ दो सौ रूपये कमा लेते है। यादमती ने 16000 रूपये लिए और अपनी बाड़ी मे ही साग भाजी उगाकर दिन के तीन सौ रूपये कमा रही है। मीना सारथी ने 5000 रूपये लेकर दो सूअर खरीदे। इनके पांच बच्चे हो चुके है, समय आने पर हर एक पांच से 7 हजार रूपये तक बिक जाएगा। 

गांव मे शराब का प्रचलन ज्यादा रहा है अतः भूमि संसाधनों पर जरूरत भर का हीं कमाया जाता है। चक्रधर ने कृषि उद्यमशीलता को बढावा देते रहे है। गांव के एक दर्जन किसान जहां श्री-विधी से धान की खेती कर रहे है। वही आदिवासी कृषकों को विशेश मार्गदर्शन देकर मूगफली, हरी सब्जी और नगदी फसलों के लिए प्रोत्साहित किया है।


चक्रधर डनसेना की चुनौतियां कम नहीं है। मगर समस्याओं से उबरने का उनका अपना अंदाज भी है। जलग्रहण समिति को विगत एक साल से राशि न मिल सकी। पूर्व के कार्यो से आशान्वित कई किसान ने अपनी भूमि मे मेड़बंदी और भमि सुधार कार्य के लिए दबाव डाल रहे थे। फंड की कमी बताकर उन्हें टाला जा सकता था, मगर इनके कार्य मनरेगा से प्रस्तावित करा दिए गए। इनके भी काम हो गए और फण्ड क़ी कमीं से भू-जल संरक्षण की धारा भी रुकने से बच गयी।  अभिसरण का ऐसा सुन्दर संयोजन कम ही देखने को मिलता है। 

बाबूलाल और सुरीत राठिया के खेतों मे उगी सूरजमुखी के बीच टहलते हुए चक्रधर डनसेना का चेहरा स्वयं किसी सूर्यमुखी से कम दीप्त नहीं है। बड़े डूमरपाली मे विकास का ताना बाना उनके इर्दगिर्द, उनकी रणनीतियों पर घूम रहा है। बगैर किसी बड़े पद या अधिकार के वह ऐसी जिम्मेदारी निबाह रहे है जिस प्रतिदान उन्हे मानसिक संतुष्टि के सिवा कुछ न मिलेगा। बाबूलाल की चौकी  पर बैठकर उसका उत्साह बढाते चक्रधर को देखकर लगता है कि हां, ऐसे महान मनुष्य ही कालांतर मे देवता का दर्जा पा जाते है।  

आप भी मोबाइल नं ९६६९८६४७२५  पर उनसे बात कर, उनका उत्साहवर्धन कर सकते हैं 

Monday, February 10, 2014

पुलिस , प्रेस और जनता

पुलिस, प्रेस और समाज के अंतर्सबंधों पर अपनी बात की शुरूआत एक आपबीती से करना चाहता हूं। तीन चार साल पहले, सुबह आठ बजे के करीब, गेट जोर से भड़भड़ाने  से नींद खुली। दरवाजा खोलने मे कुछ विलंब हुआ, देखा, तो दो पुलिसवाले खड़े थे। एक मोटरसायकल से टिककर खड़ा था, दूसरा मुझसे मुखातिब था। आसपास मोहल्ले वाले उसने सशंकित से अपने अपने दरवाजो पर खड़े थे। 
एक पुलिसवाले ने पूछा - मनीष सिंह यही रहते है।
मैने कहा - हां,। 
-भेजिए उनको। 
-मै ही हूं।  
-आपने पासपोर्ट एप्लाई किया है -उसने डांटा 
-जी । 
-11 बजे थाने आ जाइये। साहब आपसे मिलेंगे। 

वे रूखसत हुए और मैने चैन की  सांस ली। ज्यादा क्यूरियस पडोसियों को बताना पड़ा, "कुछ नहीं पासपोर्ट की इनक्वायरी है।" 

हमारे समाज मे पुलिस का आगमन अनिष्ट और अवांछित घटना का प्रतीक है। पुलिस से नजदीकी कम लोगों को हासिल है और ये नजदीकी ताकतवर और विशिस्ट होने का प्रतीक है। ज्यादातर पुलिस का नाम भय का संचार करता है। सो पहला सवाल तो यही है की पुलिस भय का प्रतीक क्यों है? पुलिसवाले भय का प्रतीक क्यों है? मजे की बात यह है कि जिन्हें कानून का भय नहीं है उन्हें पुलिसवालो का भय अवश्य है। 



भय का विपरीतअर्थी है सुरक्षा का अहसास, रेअस्योरेंस। स्काटलैण्ड, अमेरिका और आयरलैण्ड मे शेरिफ एक अधिकारी होता है जिस पुलिस के समकक्ष माना जाता है। शेरिफ शब्द का उच्चारण भय संचारित नहीं करता, बल्कि सुरक्षा और व्यवस्था कायमी का अहसास देता है। शेरिफ रिअशयोरिंग है, पुलिस इन्टीमिडेटिंग। शेरिफ की भूमिकाओं का विस्तार पुलिसिंग, कानूनी  और कुछ हद तक समाज मे पितृपुरूष जैसी बनाई गई है। हमारी पुलिस मे इसका अभाव है। शेरिफ का जनता से सामना और सपर्क, नियमित रूप होता है, हमारे यहां इसका अभाव हैं। शेरिफ मुस्कुराता हुआ हो सकता है, मगर हमारी पुलिस मे इसका भी अभाव है। संपर्क और रिश्ते  का ये अभाव भय, दूरी और आशंकाओ का जन्म देता है। 

किसी बल की जवाबदेही किसके प्रति है, यह भी एक फैक्टर है। सिद्धांततः प्रजातांत्रिक व्यवस्था मे हर ताकत को जनता के प्रति जवाबदेही होती है। मगर अद्यतन इतिहास को देखें तो यह महसूस होगा कि हमारी पुलिस मात्र शासक वर्ग, या कहें सत्ता के प्रभुओं के प्रति जवाबदेह है। अनेक प्रकरण देखे गए है जहाँ सत्ता मे प्रभावशील व्यक्ति या व्यक्तियों के हितों की पूर्ति के लिए पुलिस बल का प्रयोग वैधानिक गुडें (क्षमा करें), या मसलमैन, या निजी जासूस, के रूप मे प्रयोग होता दिखा है। सीबीआई, जो केन्द्र सरकार की एक पुलिस संस्था मानी जा सकती है, उसके बारे मे सुप्रीम कोर्ट की तोता वाली टिप्पणी, इस प्रकाश मे देखी जा सकती है।

पुलिस एक बल है, प्रजातांत्रिक व्यवस्था के अंदर कार्यरत बल है, तो समानता के अधिकार पर पर होना लाजिमी है। पुलिस एक्ट मे संशोधनों की बातें 40 साल से हो रही है, मगर अब तक अंग्रेज प्रभुओं, या उनके साथियों की सेवा की परिपाटी और व्यवस्था अक्षुण्ण बनी हुई है। इसलिए एक नेटिव इंडियन के लिए तो पुलिस का वैसा ही भय आज भी कायम है, जो अंगे्रजों के जमाने मे था। यहीं रायगढ़ जिले के अनेक औद्योगिक मामलों मे जनता के असंतोष को बलपूर्वक दबाने का प्रयत्न होता रहा है। वही ताकतवर लोगों के खिलाफ मामला दर्ज हो जाना बहुत बड़ी बात है। दिनदहाड़े हमारे शहर मे एक सामाजिक संस्था कार्यकर्ता को घर मे गोली मार दी गई, आज तक कोई सजा नही हुई। जब न्यायोचित कृत्य और प्रभुसत्ता के हित मे किसी का का चयन करने की नौबत आती है,  तो ज्यादातर चयन किसका होता है कहने की जरूरत नहीं। तो न्यायोचित के प्रति संवेदनहीनता पुलिस को और दूर करती है। हाल मे दिल्ली पुलिस और दिल्ली सरकार के बीच घटनाक्रम इसे और विस्तार से परिभाषित करते है। दिल्ली की घटना कहती है कि ट्रांसफर, सस्पेंशन जैसे अधिकार आपके पास नहीं हैं तो राज्य निर्वाचित मुख्यमंत्री को भी अंगूठा दिखाया जा सकता है। आम आदमी की तो छोड़ दीजिए। 

बल या बलशाली यदि न्यायोचित व्यवहार करता है, आश्रितों से समानता का व्यवहार करता है तो राम कहलाता है, कृष्ण की तरह पूजा जाता है। दूसरी ओर रावण से हिटलर के उदारण है जो भय और नफरत की भावना जगाते है। हमारे साथी नागरिक जो रातों को जागकर पढे थे, सुबह उठकर दौड़ने और सीना फलाने की प्रेक्टिस करते थे, और सफल होकर पुलिस बल का हिस्सा बने , उन्हे पुर्नविचार करना चािहए कि बल का हिस्सा होकर उन्होने न्यायोचित व्यवहार किया या दूसरा विकल्प अपना रहे हैं। 

तार्किकता और तकनीक का प्रयोग भी जरूरी है। एक मशहूर चुटकुला है जिसमे ब्रिटिश पुलिस, जंगल मे छुपे शेर को सेटेलाईट तकनीक से दो घण्टे में, तो अमरीकन पुलिस फेरमोन विश्लेषण द्वारा एक घंटे मे खोज निकालती है। भारत की पुलिस तीन दिन तक वापस नहीं आती। आब्जर्वर्स जाकर देखते हैं, तो पाते हैं कि पुलिस एक बंदर को पेड़ पर उल्टा लटका कर पीट रही है, और कह रही है कि कबूल कर कि तू ही शेर है। ये एक चुटकुला मात्र है, मगर भारतीय पुलिस की जनमानस मे छवि को रेखांकित करता है। 


पुलिस की उपस्थिति क्राइम कन्ट्रोल के अलावे दूसरे कानूनों मे कम दिखती है। संसद और राज्य साल दर साल 20-30 कानून बनाते हैं। पर आइपीसी , सीआरपीसी तक ही पुलिस की रूचि देखी जाती है। पाल्यू’ान, फारेस्ट और सामाजिक न्याय के विषयों मे पुलिस कर प्रोएक्टिव कार्यवाही कम देखने को मिलती है। विगत वर्ष कन्या भू्रण हत्या को लेकर जिले मे जागरूकता का वातावरण तैयार हुआ था। पीसी पीएनडीटी एक्ट को लेकर काफी चर्चाएं की गईं। मगर आज तक एक भी प्रकरण दर्ज नहीं हुआ है। जिले मे पेसा एक्ट उल्लंघन के अनेक घटनाऐं हैं,  मगर कभी जुर्म दर्ज नही हुआ। ऐसे प्रकरणों मे पुलिस का दखल यदि दिखेगा पुलिस का सम्मान निश्चित रूप से बढेगा ही । 

यदि व्यवस्था को खुला और पारदर्शि करना है, पुलिस को शेरिफ की तरह रिअश्योरिंग होना है तो सामाजिक प्रजातांत्रिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करना ही होगा, दूरी और भय को घटाना होगा। इसका कोई विकल्प नहीं है। यहीं प्रेस की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। 

प्रेस पजातंत्र का चौथा स्तंभ, पहले से कहा जाता रहा है। समाज के विचार को प्रभावित करने वाला सबसे ताकतवर फैक्टर प्रेस है। इलेक्ट्रानिक युग मे प्रेस के लिए मीडिया शब्द का भी इस्तेमाल होता है। मीडिया मतलब है माध्यम। ऐसा माध्यम जिसके सहारे विचार प्रवाहित हों, संप्रेषित हों और दूसरे के मष्तिष्क को प्रभावित करें। समाज के तमाम सामाजिक राजनैतिक नागरिक मुद्दों को निष्पक्षता के साथ, सरोकार ओर सवेदनशीलता के साथ संप्रेषित करना, प्रेस और मीडिया से अपेक्षित है। 

पुलिस हो या न्यायपालिका, कार्यपालिका के अन्य विभाग, इनके उपयोग और विचार के लिए जनआंकांक्षाओं को ठीक ठीक तरीके से रखना, मुद्दे और बहस को समाने लाना, और उचित वि’लेषण कर प्रजातंत्र की, आम आदमी की और समानता के अधिकार की रक्षा कर सकती है। बहुत हद तक भारतीय प्रेस ने इस जिम्मेदारी को बखूबी निभाया है, लोकतंत्र को मजबूती दी है। हाल ही मे मीडिया, तकनीकी क्रांति के कारण अधिक सशक्त हुआ है। लोगों तक इसकी पकड़ और पहुंच निरंतर बढ़ी है। बहुत तेज विस्तार भी हुआ है। इस तेज विस्तार और बढती हुई ताकत ने प्रेस को एक ऐसे राह पर ला खड़ा किया है जहां से उस पर निहित स्वार्थों की नजर गड़ी है। इस ताकत को टेम करने, कब्जा कर लेने और इसका मनमाफिक इस्तेमाल करने के इच्छुक, थैलियां लेकर शिकार  पर निकल पड़े है। 


मीडिया हर तरह के विचार का संवाहक है। उत्पादन करने वाले से उपभोक्ता तक, सत्ता आंकाक्षी से वोटर तक, राजा से प्रजा तक बड़े विस्तार से बात को पहुंचाना और अनुकूल या प्रतिकूल माहौल निर्मित करना मीडिया के नियंत्रण मे आ गया  है। सवाल यह है कि मीडिया अपनी भूमिका उत्पादक से उपभोक्ता तक पहुचाएगा या उपभोक्ता की जरूरत उत्पादक तक, क्या वह वोटर की जरूरत को सत्ता आकांक्षी तक पहुचाएगा या सत्ता के व्यक्तव्यों को शासित तक। क्या वह प्रजा की मांग को तवज्जो देगा राजा के आश्वासनो  को। मीडिया की पहचान, मीडिया गु्रप की पहचान, अखबार या चैनल की पहचान और छवि इसी पर निर्भर करेगी उसने किसको तवज्जो दी। 

पहचान और छवि के औजार है खबर और विश्लेषण । मगर वह इन औजारो का प्रयोग तब करेगा जब वह सर्वाइव करेगा। सर्वाइवल का औजार है विज्ञापन, पेड न्यूज और ऐसी चीजे जिससे पैसा आता हो। यहां पर चयन हर एक मीडिया कर्मी, प्रकाशन  और मीडिया हाउस को  करना है पहचान और छवि के औजारो को तवज्जो देगा, या सर्वाइवल के हथियारों को। उनका रोल माडल कौन होगा, इसके चयन मे सावधानी हो। 

एक समस्या यह है कि प्रजातंत्र के तीन स्तंभों का हिस्सा बनने के लिए अपनी योग्यता को साबित करने की प्रतिस्पर्धा होती है। यूपीएसी के एक्जाम देकर, चुनाव लड़कर एक स्तर के उपर के ही लोग चयनित होते है। कोई यूंही उसका भाग नहीं बन सकता । मगर चैथे स्तंभ का हिस्सा बनने के लिए कोई संघर्ष नहीं है। कोई मानदण्ड नहीं है। यह खुला  मैदान है। इसका फायदा वे प्रभुत्वशाली  उठा रहे हैं, जो चाहते है कि मीडिया की ताकत उनकी मुट्ठी मे हो। 
कार्पोरेटटस, राजनैतिक दल, व्यवसायी सभी मीडिया हाउस बनने को लालायित है, उनके मालिकाना  हको को खरीद रहे है। मगर इनके मोटिव संदिग्ध है। इनके मोरल्स संदिग्ध है। मीडिया के अनेक प्रतिभाशाली और सम्मानित रोल माडल भी फिसल रहे है। यह एक ऐसा संघर्ष है, आग का दरिया है जिससे डूब कर हर मीडियाकर्मी को जाना है। इस अग्निपरीक्षा का भाग बनना हर प्रेसवाले की नियति बन गई है। मगर याद रखिए - आप वहीं होगे, जो बनने का निर्णय आप करेंगे। 


रायगढ़ के खास संदर्भ मे एक बात कहना चाहुगा। मेरे एक पत्रकार मित्र ने बताया कि किसी बड़े अधिकारी से मिलकर उन्होने परिचय दिया, कि वे पत्रकार है, एक्स अखबार से है। अधिकारी ने अपने कंप्यूटर से नजर हटाए बगैर पूछा - पत्रकारिता के अलावा आपका और बिजनेस क्या है ? विशुद्ध पत्रकार जीव इसका उत्तर देने मे असफल रहे। 

मै यहां बैठे हर उस पत्रकार को बधाई देना चाहूंगा जो इस सवाल का उत्तर देने मे असफल होगा। ऐसे पत्रकारों की संख्या मे वृद्धि ही हमारे प्रजातंत्र को मजबूत करेगी। ऐसा मीडिया हमे स्वस्थ प्रजातंत्र दे सकेगा और समानता के अधिकार की पैरवी कर सकेगा। 

इस आयोजन और अपने विचार रखने का मौका देने के लिए मै किरणदूत परिवार को धन्यवाद देता हू 
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Speech given by Mr Manish Singh, Secretary JanMitram. Views  Given are his personal. 
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Friday, January 24, 2014

कृपा आ रही है ..

पहले उनका नाम था संतोषी, कौशल्या, लक्ष्मीन, जमुना, दुलारी और लेखनी । गुरदा की ये महिलाऐं कृषि मजदूर थी। मांड नदी के किनारें बसे गुरदा मे धान, सब्जी और मूंगफली की खेती साल भर चलती हैं। जिनके पास भूमि है, वे समृद्ध है। जिनके पास नहीं है, वो इन महिलाओं की तरह खेतिहर मजदूरी या पशुपालन करते है। गरीब परिवारों के पास अगर थोड़ी बहुत जमीन थी भी, तो शादी ब्याह बीमारी के चक्करों मे कर्ज की भेट चढ़ गई। 

फिर एक दिन मे सभी ने अपनी अलग-अलग पहचान मिटाने का फैसला किया। मिलकर वो एक हो गईं। नाम रखा चन्द्रहासिनी स्व सहायता समूह। चन्द्रहासिनी नाम है उस देवी का जो महानदी के किनारे चन्द्रपुर मे एक पहाड़ी पर आसीन है। गुरदा की इन देवियों ने दूर बैंठी मां चंद्रहासिनी की कृपा की आकांक्षा तो की, मगर कृपा आने तक इंतजार नही किया। लक्ष्मीन, जो थोड़ी पढी लिखी होने के कारण समूह की सचिव बनी थी, उसके घर मे हर कोई रविवार 2 बजे जमा होता। जनमित्रम के स्थानीय कार्यकर्ता भारत भी वहीं आ जाते। कई तरह की बातें होती, भजन गायन से लेकर कहानी किस्से, दुख तकलीफ और छोटी छोटी खुशियां बाटी जाती। बैठक के अंत मे सभी पचास रूपये जमा करती, जिसे सचिव लक्ष्मीन रजिस्टर और खातों मे लिखती। माह की अंतिम बैठक के बाद जमा हुए रूपये भारत ले जाते और कोआपरेटिव फेडरेशन मे इस समूह के खाते मे जमा कर देते।

भारत के सीनीयर ने जीवन भगत भी एक दिन समूह की बैठक मे आए। समूह सदस्यों की जरूरतों, और जो थोड़े बहुत संसाधन थे उनका आकलन कर कर एक क्रेडिट प्लान तैयार किया। तय हुआ पहला ऋण 45000 का होगा, लेखनी 16000 लेगी ताकि अपनी गिरवी रखी जमीन छुड़ा सके। लक्ष्मीन का घर गांव के चैक पर था। वो वहीं एक दुकान खोलना चाहती थी। वह 16000 लेगी । बचे पैसे से समूह एक जमीन दो साल के लिए लीज पर लेगा, जहां मिल जुलकर खेती की जाएगी। 
 
पैसे दो दिन बाद मिल गए। लक्ष्मीन की दुकान खुल गई , अब वह दुकान मे बैठती है। दिन के डेढ दो सौ कमाती। मजदूरी करती है मगर केवल समूह की जमीन पर। प्लानिंग कमीशन की परिभाषा में अब वह बीपीएल से काफी ऊपर आ चुकी है। 

लेखनी की जमीन वापस आई, तो परिवार ने उस पर खेती शुरू कर दी जिससे 30 हजार का धान निकला है। समूह की जमीन पर भी धान लगा, लगभग 22000 का घान वहां भी आ गया जिसपर समूह की हकदारी है। अभी साल भर के लिए जमीन की लीज बाकी है। अगले साल जो आएगा, पूरा का पूरा मुनाफा होगा। 
  

दो परिवार आबाद हुए और सामूहिक आय भी बढ़ी। धान मडियों मे दे दिया गया है, चेक मिलते ही कर्जा वापस हो जाएगा, तय अवधि से तीन माह पहले ही .... ! बाकी के परिवार भी योजना बनाकर तैयार बैठे है। ऋण के अगले चक्र, या कहे की कि मां चन्द्रहासिनी की कृपा पाने का अगला नंबर उनका है।

गुरदा मे तीन ऐसे स्व सहायता समूह और है। गांव की चालीस महिलाऐं इस धारा मे जुड़ चुकी हैं, और भी जुड़ती जा रहीं है। कुछ दुर्गा मैया के नाम पर तो कोई लक्ष्मी माता के नाम पर कृपा की आंकांक्षी हैं। 


एक बड़े "गाडमैन" टेलिविजन पर समागम करते है और भक्त भक्तिनियों को बताते है कि काला पर्स रखने, या नीली चादर पर बैठने से कृपा आएगी। उन्हे संतोषी, कौशल्या, लक्ष्मीन, जमुना, दुलारी और लेखनी से मिलने की जरूरत है, जो बताऐंगी की कृपा दरअसल कहां रूकी थी। लक्ष्मीन की बेटी दिव्या इसे साफ लफ्जो मे कहती है - एकता नहीं थी ना, तभी कृपा रूकी थी। 

चलिए भई, अब कृपा आ रही है।


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Contributed by Manish Singh

Thursday, January 23, 2014

आखों भर आकाश है ..

बंदगोभी की खूबसूरत क्यारियों के बीच गौरीशंकर पटेल खड़े हैं, दोनो बाहें फैलाए। ये शाहरूखिया अंदाज, थोड़ा दिखावटी, थोड़ा कैमरे के लिए को पोज देने के लिए है जरूर है, मगर उसके इर्दगिर्द फैले छह एकड़ की उंची नीची भूमि मे खिली सब्जियों की क्यारियां, उसकी मुस्कान की तरह असली हैं।
अपने से उम्रदराज कृषकों के कात्यायनी समूह का यह युवा लीडर सुबह मुंह अन्धेरे उठता है। सब्जियों के अपने बगीचे की एक एक क्यारी घूमता है। अपने साथियो को जरूरी निर्देश देकर वहीं कुंऐ पर नहा धोकर तैयार होता है। कुछ समय बाद अपने दो पहियों के ट्रक मे ( जो दरअसल एक स्प्लेण्डर मोटरसायकल है), डेढ दो क्विंटल सब्जियां लादकर 15 से 25 किमी दूर किसी साप्ताहिक बाजार मे चला जाता है।


गौरीशंकर के दादा वेदराम, पास के पामगढ के निवासी थे। मांड के किनारे बसे पामगढ मे उनकी जमीन नदी मे जज्ब हो गई, तो दो-तीन एकड़ जमीन जबलपुर मे ले ली गई। बरसाती नाले के किनारे की पहाड़ीनुमा इस जमीन पर कर्रा का छुटपुट जंगल था। इसी जमीन पर सागभाजी की शुरूआत हुई। दादा के इस काम को व्यावसायिक और तकनीकी स्वरूप गौरी’ांकर ने दिया है। अपने 3 एकड़ जमीन केे आसपास दूसरों को प्रोत्साहित कर सामूहिक काम के लिए उसने कात्यायनी समूह बनाया। साथी भोकसिंह, हीरालाल, मोहितराम और लूतन के जमीनों को जोड़ कर तो रकबा दुगना कर लिया। इससे सभी को फायदा हो रहा है। सब्जियों की बिक्री से इनको दैनिक 1500 तक की शुद्ध आय हो जाती है। 
गौरीशंकर बताते हैं कि गांव चल रहे जलग्रहण कार्यक्रम से सब्जियों की वेरायटी, सीजन आदि की जानकारी हुई। अब वह सब्जी ऐसे लगाता है कि उसका उत्पादन सीजन मे सबसे पहले आए, जब दाम उंचे होते है। इससे फायदा बढ गया है। पहले सिर्फ आलू टमाटर पर जोर था, अब हरी सब्जियों का रकगा बढाया गया है। जलग्रहण वालों ने कृषि विभाग से स्प्रिंकलर दिलवा दिए, जिससे हरी सब्जियां उगाने मे मदद मिलती है। शीघ्र ही वर्मीकम्पोस्ट तैयार करना शुरू करेगा, जिससे खाद आदि का खर्च और घट जाएगा। पिछले साल मे उनके समूह ने 2 बार ऋण लिया है। एक बार पच्चीस हजार और दूसरी बार पचास हजार। इसे पटाने के बाद उसकी योजना एक मालवाहक आटो लेने की है।


जलग्रहण परियोजना के स्थानीय प्रभारी श्री जीवन भगत बताते है कि कात्यायनी समूह की जमीन का एक हिस्सा अभी भी कटाफटा और बेकार है। भूमि सुधार और मेडबंदी के लिए इनका आवेदन जलग्रहण कमेटी अगली बैठक मे रखा जाएगा। वहां सहमति होने पर आवेदक अपना अपना अंशदान जमा कराएगा और काम शुरू करा दिया जाएगा। बगीचे का रकबा, इसके बाद बढ़कर 11 एकड़ हो जाएगा। 

सुबह से खेत और बाजार मे भागते गौरीशंकर की शामें घर मे गुजरती है। पत्नी कविता और तीन बच्चों के के साथ घर मे माता पिता भी हैं। दस साल का बेटा सालिक को वह कृषि वैज्ञानिक बनाना चाहता है। और 6 साल की बातूनी शीला, निश्चित रूप से वकील बनेगी।
अपने बगीचे, व्यवसाय और परिवार के बीच सिमटी जिंदगी मे गौरीशंकर बेहद खुश है। जिसका पूरा क्रेडिट भगवान भोले शंकर को है जो उस पर कृपा दृष्टि बनाए हुए है। 

निदा फाजली की पंक्तियां उसपर सटीक बैठती है 
छोटा कर के देखिए , जीवन का विस्तार,
आँखों भर आकाश है, बाहों भर संसार !!

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Wednesday, January 22, 2014

नवरंगपुर की बकरियां

शाम को जब घर पहुंचा तो पत्नी जी एक स्टेटमेण्ट का निरीक्षण कर रही थी। शेयरो मे इन्वेस्टमेण्ट की डिटेल थी। खबर कुछ अच्छी नहीं थी। नामी गिरामी कंपनियों मे मेहनत की गाढ़ी कमाई आधी हो गई है। बुरा हो इस मंदी का ... । पिछले एक साल से सेन्सेक्स उपर तो हो रहा है मगर हमारे शेयर औधे मुंह पड़े है। 

मूड़ खराब हो, बीवी नाराज हो उस दिन फील्ड जरूर चले जाना चाहिए। पत्नी अभी भी उदास थी। सो सांत्वना दी - कुछ समय इंतजार करो, सब ठीक हो जाएगा। फिर निकल पड़े। 

आज खरसिया जाना है। यहां आसपास के 20 गांवों मे हमारी संस्था जनमित्रम, एक जलग्रहण परियोजना संचालित कर रही है। मिट्टी जल संरक्षण के कुछ काम देखने हैं। ऋण लेकर बढि़या काम कर रहे कुछ महिला स्वसहायता समूहों से भी मिलना है।
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दिन के दूसरे हाफ मे नवरंगपुर पहुंचे। माण्ड के पास पहाड़ी टीले पर बसा ये गांव पानी की कमी से बुरी तरह त्रस्त है। बोर फेल हैं, कुंए सूख जाते हैं, महिलाऐं 2-3 किलोमीटर दूर से पानी लाती हैं। नतीजा - खेती एकफसली है, पशुपालन सीमित है,पूंजी नही है तो कुटीर व्यवसाय भी कम हैं। पांच सौ की आबादी का यह गांव गरीबी और जकड़न का उदाहरण है।

पुरूषों मे शराब की प्रचलन खूब है, मगर गांव की महिलाऐं जागरूक है। कुछ ऐसी धारा है कि कुनबे मे परिवार अलग हो जाते है मगर महिलाऐ बड़ा मिलजुलकर रहती हैं। गांव मे हमारे बनाऐ छह स्वसहायता समूह है। गांव की अधिकांश सास बहुऐं इन समूहों मे जुड़ी है। इनकी एक फेडरेशन है जो रवि कोआपरेटिव (जनमित्रम द्वारा प्रणीत सहकारी समिति ) से संबद्ध है। जहां बैंक इन्हें संपत्ति और कागजों के अभाव मे ऋण नहीं देता, वहां गांव की फेडरेशन  के निर्णय पर रवि कोआपरेटिव, एक कागज के आवेदन पर ऋण दे देता है। 
ग्राम मे जलग्रहण समिति भी बनी है, जिसमे भी पुरूषों की तुलना मे महिलाओं का बाहुल्य है। यह समिति, जलग्रहण परियोजना के पहलुओं पर निर्णय करती है तथा मिट्टी -जल संरक्षण  के कार्यों  क्रियान्वयन करती है। प्रथम, इस कमेटी से कार्यों और योजनाओं पर ही चर्चा हुई। इसके बाद हम पहुचे गणेशि बाई के घर। 

गणेशि बाई का मिट्टी का घर, जिसके आगन मे हम बैठे, गाय का कोठार और बकरियों का शेड बना था। इसके आसपास के घरो की महिलाओं ने चंद्रहासिनी समूह बना रखा है। अप्रेल 2013 मे गठित इस समूह मे अध्यक्ष रामबाई हैं तो सचिव भोजकुमारी। समूह की महिलाऐं 50 रू साप्ताहिक बचत करती है, और इस प्रकार 10 महिलाऐ मासिक रूप से 2000 रू बचा कर कोआपरेटिव मे आवर्ती खाता खोलकर जमा किया है। सभी परिवार या तो भूमिहीन हैं या 2-3 एकड़ असिचित टिकरा के पट्टेदार। 

भोजकुमारी ने बात करनी शुरू की। समूह ने 8 माह पहले 45000 का ऋण लिया था। इससे बकरियां खरीदी गईं।देसी बकरियां यहां अच्छा व्यवसाय है। साल भर मे दो बार बच्चे जनने वाली देसी बकरियां, 1 साल की उम्र तक तीन साढे तीन हजार मूल्य की हो जाती है। इन्हे साधारण पत्ते, घासफूस खिलाकर बढाया जा सकता है। इतने मे गणे’ाी चारे की एक डाल को लिए आगे आती दिखी, और पीछे पीछे बकरियों का रेला। समूह के पास अभी लगभग 25 बकरियां हैं। इन्हे उचित समय पर बेचा जाएगा। लगभग आने वाले तीन चार माह मे 1 लाख रूपये कमाने की आशा  है। मान लीजिए साल भर मे दोगुने से अधिक मुनाफा ... 

समूह के रजिस्टर आदि चेक किए। सबकुछ दुरूस्त था। बकरियों के टीकाकरण आदि को लेकर कुछ बातचीत हुई। फिर हम वापसी के लिए चल पड़े। 
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गांव से निकल कर मुख्यमार्ग पर आते हुए दिमाग मे कौधा - पत्नी जी को कहा जाए कि शेयर बेच कर कुछ बकरियां खरीद लो। कम से कम यहाँ तुम्हारा पैसा डूबेगा नहीं।   
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Contributed By : Manish Singh

समर अभी शेष है ...

देश की राजनीति मे "आम आदमी" का जुमला बड़ा प्रचलित और गरमागरम विषय हो चुका है। हर किसी की अपनी परिभाषाऐं ओर अपने मापदण्ड है। इस जुमलेबाजी और बौद्धिक बहसों से निर्लिप्त वे लोग है, जो सुनहरे भविष्य की तलाश मे अपने जीवन और परिवेश से जूझते, हारते, जीतते अपनी यात्रा जारी रखे हैं। जीवन के वसंत की मरीचिका का पीछा करता हमारा बसंतलाल भी है। बसंतलाल वही - जो आम है, भारतीय है, और जिजिविषा से भरा है। 
रायगढ से 25 किमी दक्षिण मे पूजीपथरा का औद्योगिक पार्क जहां खड़ा है, उसके नीचे बसंतलाल निषाद की तीन एकड़ जमीन हुआ करती थी। गांजे के शौकीन पिता लोधूराम ने ये जमीन मात्र तीस हजार मे किसी बिचौलिये को बेची थी, सो नौकरी मिलने का सवाल नहीं था। भाई आशाराम ने जहां ड्राइवरी का पेशा अपना लिया तो बसंत अपने मामा के गांव, खरसिया तहसील के गुरदा मे आ बसे।

छठवीं पास अकुशल व्यक्ति को देहात में काम क्या मिलता, सो खेतों मे मजदूरी शुरू की। एक डिसमिल जमीन लेकर एक झोपड़ी बनाई। फिर एक मवेशी विक्रेता ने उसे अपने लिए काम दिया। गांव देहात से मवेशी छांटकर वह सौदा करवाता, पशु बाजारों तक पहुंचाता और बदले मे थोड़ी दलाली मिलती।

एक दिन बसंत की पत्नी जम्बोबाई को पशुविभाग की ओर से कुछ चूजे मुफ्त मिले। घर मे इन्हे पाला गया। बसंत को कुछ रूचि हुई तो रायगढ़ जाकर विभाग के कुक्कुट पालन केन्द्र घूम आया। दिमाग मे योजना बनी, मगर पूंजी का टोटा था। गुरदा की जलग्रहण कमेटी कुछ लोन वोन देती है, ऐसा पता चला। सरपंज और कमेटी अध्यक्ष से बोल-बाल के केस बनवा लिया। बीस हजार का लोन मिला। बसंत ने अपनी झोपड़ी के एक हिस्से मे ही 200 चूजे रखे। इतने चूजे छोटे से कमरे मे समा नहीं पाते थे। तो किया ये, कि छोटे चूजे थोड़े बड़े हो जाते तो दूसरे कमरे मे शिफ्ट कर दिया जाता। और बड़े हो जाते तो बेच दिए जाते। देखने वाले को समझना मुश्किल था कि घर बसंत का है, या चूजों का। जैसे तैसे सारे चूजे बड़े हो गए, थोड़ी बहुत कमाई भी हुई , लोन भी चुक गया। मगर खास कुछ बचा नहीं। 
मगर चस्का लग चुका था। इस बार थोड़ी बड़ी पूंजी लगाने का इरादा था, जो जलग्रहण कमेटी के बूते से बाहर था। कोआपरेटिव मे बात हुई तो पता चला कि जमा के चार गुने के बराबर लोन मिल सकता है। सो जम्बों के गहनों की पिटारी गिरवी रखी गई। दस हजार का इंतजाम हुआ तो कोआपरेटिव मे जमा किया गया। नतीजतन चालीस हजार मिल गए। इस बार आंगन मे बाड़ा बनाया और 500 चूजे रखे। काम चल निकला। घर के पास मौलश्री के पेड़ पर निषाद मुर्गा फार्म का बोर्ड लग गया। रायगढ के "कौशिक सेठ" से सीधे डीलिंग शुरू हो गई। इधर जम्बो ने भी कुछ बकरियां पाल ली, सो इनसे भी कुछ कमाई बढ़ रही है। आंगन का बाड़ा तोड़कर बडा किया जा रहा है ताकि 1000 चूजे रखे जा सकें। बसंत अपने चूजों को बड़ी सफाई से रखता है, टीकाकरण करवाता है-एक रानीखेत का, एक डंगबोरो का और एक ठो और, जिसका नाम उसे नहीं मालूम है। अपने चूजों का वह विटामिन भी देता है।

बसंत अपनी कहानी सुना रहा था, कि मैने पूछ लिया - तुम्हारे कितने बच्चे हैं बसंत? 
बसंत के जोश मे ठहराव आ गया। बच्चे नहीं हैं साहब ... । वैवाहिक जीवन के दस-ग्यारह साल के बाद भी संतान न होना "ईश्वर की मर्जी" बताई गई। तभी पास खड़ी जम्बोबाई बगल की कोठरी मे गई, और गोद मे कुछ उठा लाई। गोद मे पड़े मासूम जीव सिमट रहा था, और चमकीली आंखो से देख रहा था। प्यारे से उस खरगोश को दिखाकर जम्बो बोली - इन्हें ही पाल रहे हैं साहब। अंदर दो बच्चे और हैं। उसकी आंखों मे "ईश्वर की मर्जी" को हरा देने का संतोष था।

 बसंत भी बगल मे जा खड़ा हुआ। मैने तुरंत कैमरे की ओर हाथ बढाया, आखिर एक क्लिक की तो बनती है। 


निकलते हुए मैने पूछा - बसंत, इस बार अच्छा कमा लोगे तो क्या खास खर्च करोगे।
 
-"जम्बों की गहनों की पिटारी को छुड़वाउंगा साहब.. "

बहरहाल, बीपीएल की सीमा और आम आदमी-खास आदमी की परिभाषा पर बहसें जारी है। मगर हमारा खास आदमी तो जीवन के वसंत की मरीचिका का पीछा करता हमारा बसंतलाल है। बसंतलाल वही - जो आम है, भारतीय है, और जिजिविषा से भरा है। जो रोटी रोजी, व्यवस्था और ईश्वर से लड़ रहा है, अपनी पत्नी के गिरवी रखे गहनों की पिटारी के लिए...

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Contributed By Manish Singh

Sunday, January 5, 2014

बढ़ते रहो हासिद, हँसते रहो हासिद..


अभिषेक बच्चन की मशहूर फिल्म 'गुरू' के शुरूआती हिस्से मे एक सीन है. हीरो अपने एम्प्लायर से कहता है - 'अगर मै इतना ही उत्कृष्ट कर्मचारी हूं, तो फिर यही काम अपने लिए क्यो ना करूं'। यहां से वह अपनी नौकरी छोड़कर स्वयं का व्यवसाय शुरू करता है। बायोपिकनुमा फिल्म का यह सीन, हीरो की जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट है।हासिद की कहानी बरबस ही उस सीन की याद दिलाती है। लेकिन हासिद की कहानी कहीं ज्यादा दिलचस्प है। 

लगभग 10 साल पहले जाली नोटों का एक प्रकरण सुर्खियों मे आया था। कुछ आरोपी पकड़े गए थे। जनमित्रम के द्वारा संचालित मितानिन नाम के एक सामुदायिक स्वास्थ्य आधारित कार्यक्रम की एक कार्यकर्ता का पति भी प्रकरण मे आरोपी था। रायकेरा गांव मे चल रहे प्रशिक्षण के दौरान वह अपनी पत्नी को छोड़ने आया था। मुझे अभिवादन करने के लिए कुछ क्षण रूका और बाहर चला गया। दिन भर गहमागहमी के दोरान कहीं से यह बात खुली। शाम को मैने पहल की, तो पति पत्नी ने इस विषय पर अपना पक्ष बताया। युवक कुछ आहत, कुछ शर्मिन्दा सा था। घटना के प्रकाश मे उसे कहीं नौकरी मिलनी मुश्किल थी। मैने उस क्षेत्रीय सुपरवाइजर के रूप में रख लिया। 

समय गुजरा, और लाख उत्पादन के लिए एक विशेष अभियान को जनमित्रम ने भारत सरकार की मदद से संचालित किया। अच्छे कार्यकर्ता इस कार्यक्रम मे स्थानांतरित किए गए। हासिद भी उनमे था। आगे आने वाले तीन साल का समय, गहन प्रशिक्षणों का दौर था। कार्यकर्ता भारतीय लाख अनुसंधान संस्थान रांची से प्रशिक्षण लेते थे और फिर आकर स्वसहायता समूहो, किसानों को प्रशिक्षण देते। लाख बीज, उन्नत उपकरण ओर मानिटरिंग से जिले मे लाख का उत्पादन तेजी से बढा। सबसे तेज वृद्धि घरघोड़ा और धर्मजयगढ के इलाको मे हुई। यह अधिकांश क्षेत्र हासिद गुप्ता संभाल रहे थे। 


उत्पादन बढने से कीमतें गिरने का सिलसिला शुरू हो गया था। नतीजतन संस्था को हस्तक्षेप करना पड़ा। रायगढ़ एकीकृत शैलाक संघ की स्थापना की गई। प्रोसेसिंग और भण्डारण की व्यवस्था जमाकर , लाख की खरीदी स्व सहायता समूहों के माध्यम से प्रारंभ की गई। कंपनी एक्ट मे पंजीकृत इस संघ को संचालन करने के लिए व्यवासायिक गुणो वाले कार्यकर्ताओं की आवश्यकता थी। हासिद फिर एक बार श्रेष्ठ विकल्प था। कंपनी ने अपना काम शुरू कर दिया। पूंजी सीमित थी, पर महिला समूहों का सहयोग था। रायगढ़ की लाख, बरास्ते बलरामपुर और कलकत्ता, विदेशों सफर तय करने लगी। काम संतोषजनक था। 


एक दिन पता चला कि कुछ कार्यकर्ता संस्थागत संसाधनों का उपयोग, निजी लाख व्यवसाय में कर रहे हैं। जांच परख करने पर कुछ सत्यता मिली। संस्था के संसाधन का दुरूपयोग तो नहीं प्रमाणित हुआ, मगर निजी व्यवसाय अवश्य हो रहे थे। सभी संलिप्तों को उनके दर्जे के अनुसार कार्यवाही की गई। हासिद भी संदेह की परिधि मे थे, सो कड़ी फटकार लगाई गई। इस घटना के बाद से उसके समर्पण के कमी आई। आखिर एक दिन उसने काम छोड़ दिया। 


अपनी नौकरी के दिनों मे, चारमार गांव के करीब उसने कुछ पेड़ों पर लीज लेकर लाख उत्पादन शुरू करा दिया था। तीन चार पेड़ों और कुछ क्विंटल उत्पादन से शुरू किया व्यवसाय आसपास के ग्रामों मे फैलाया। तकनीकी ज्ञान के संपूर्ण उपयोग से साथ उसका उत्पादन सामान्य से ज्यादा रहता। घीरे घीरे और किसान उसके साथ जुड़े और कांरवा बढ़ता गया। ये वह क्षेत्र था जो लाख के विषय मे जनमित्रम के कार्यक्षेत्र से बाहर था। सो, जहां संस्था नहीं कर सकी, किन्हीं अर्थों मे संस्था का कार्य हासिद वहां पहुचा दिया। लाख उत्पादन के आसपास खरीद बिक्री में भी उसने हाथ आजमाया। तो खुद की कमाई भी बढ़ी। 


आज उसकी सालाना आय 8 से 10 लाख रूपये है। दरवाजे पर ब्राण्ड न्यू स्कार्पियो खड़ी है। मकान पक्का हो चुका है। मगर वह हासिद अभी भी वेसा ही है- विनम्र, शर्मीला, बोलते या हंसते समय मुंह को हाथ से छिपाता हुआ। मैने उससे उसका लाख उत्पादन क्षेत्र दिखाने की गुजारिश की। पहुचकर देखा कि किस प्रकार उसने कुछ लोगों को रोजगार दे रखा है, तकनीकें सिखा रखी है। मन प्रफुल्लित हुआ। 

वहीं खड़े खड़े एक वादा लिया। हासिद अपने गांव मे इन किसानो और आदिवासियों को जोड़कर एक सहकारी समिति गठित करेगा। अपने विकास मे कुछ और कम सक्षम लोगों को साथ लेकर चलेगा। गांव मे स्व सहायता समूहों को अपना मार्गदर्शन देता रहेगा। जनमित्रम के उदेश्यो को भूलेगा नहीं। 


हासिद ने वादा किया है। सहकारी समिति गठन के लिए तो विशेष रूप से उत्साहित दिखा। विदा लेते हुए गाड़ी के रियरव्यू मिरर मे उसकी छवि दिख रही थी। मुझे गुरू फिल्म का अभिषेक बच्चन याद आ रहा था - अगर मै इतना ही उत्कृष्ट कर्मचारी हूं तो ....

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Contributed By Manish Singh 
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