अभिषेक बच्चन की मशहूर फिल्म 'गुरू' के शुरूआती हिस्से मे एक सीन है. हीरो अपने एम्प्लायर से कहता है - 'अगर मै इतना ही उत्कृष्ट कर्मचारी हूं, तो फिर यही काम अपने लिए क्यो ना करूं'। यहां से वह अपनी नौकरी छोड़कर स्वयं का व्यवसाय शुरू करता है। बायोपिकनुमा फिल्म का यह सीन, हीरो की जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट है।हासिद की कहानी बरबस ही उस सीन की याद दिलाती है। लेकिन हासिद की कहानी कहीं ज्यादा दिलचस्प है।
लगभग 10 साल पहले जाली नोटों का एक प्रकरण सुर्खियों मे आया था। कुछ आरोपी पकड़े गए थे। जनमित्रम के द्वारा संचालित मितानिन नाम के एक सामुदायिक स्वास्थ्य आधारित कार्यक्रम की एक कार्यकर्ता का पति भी प्रकरण मे आरोपी था। रायकेरा गांव मे चल रहे प्रशिक्षण के दौरान वह अपनी पत्नी को छोड़ने आया था। मुझे अभिवादन करने के लिए कुछ क्षण रूका और बाहर चला गया। दिन भर गहमागहमी के दोरान कहीं से यह बात खुली। शाम को मैने पहल की, तो पति पत्नी ने इस विषय पर अपना पक्ष बताया। युवक कुछ आहत, कुछ शर्मिन्दा सा था। घटना के प्रकाश मे उसे कहीं नौकरी मिलनी मुश्किल थी। मैने उस क्षेत्रीय सुपरवाइजर के रूप में रख लिया।
समय गुजरा, और लाख उत्पादन के लिए एक विशेष अभियान को जनमित्रम ने भारत सरकार की मदद से संचालित किया। अच्छे कार्यकर्ता इस कार्यक्रम मे स्थानांतरित किए गए। हासिद भी उनमे था। आगे आने वाले तीन साल का समय, गहन प्रशिक्षणों का दौर था। कार्यकर्ता भारतीय लाख अनुसंधान संस्थान रांची से प्रशिक्षण लेते थे और फिर आकर स्वसहायता समूहो, किसानों को प्रशिक्षण देते। लाख बीज, उन्नत उपकरण ओर मानिटरिंग से जिले मे लाख का उत्पादन तेजी से बढा। सबसे तेज वृद्धि घरघोड़ा और धर्मजयगढ के इलाको मे हुई। यह अधिकांश क्षेत्र हासिद गुप्ता संभाल रहे थे।
उत्पादन बढने से कीमतें गिरने का सिलसिला शुरू हो गया था। नतीजतन संस्था को हस्तक्षेप करना पड़ा। रायगढ़ एकीकृत शैलाक संघ की स्थापना की गई। प्रोसेसिंग और भण्डारण की व्यवस्था जमाकर , लाख की खरीदी स्व सहायता समूहों के माध्यम से प्रारंभ की गई। कंपनी एक्ट मे पंजीकृत इस संघ को संचालन करने के लिए व्यवासायिक गुणो वाले कार्यकर्ताओं की आवश्यकता थी। हासिद फिर एक बार श्रेष्ठ विकल्प था। कंपनी ने अपना काम शुरू कर दिया। पूंजी सीमित थी, पर महिला समूहों का सहयोग था। रायगढ़ की लाख, बरास्ते बलरामपुर और कलकत्ता, विदेशों सफर तय करने लगी। काम संतोषजनक था।
एक दिन पता चला कि कुछ कार्यकर्ता संस्थागत संसाधनों का उपयोग, निजी लाख व्यवसाय में कर रहे हैं। जांच परख करने पर कुछ सत्यता मिली। संस्था के संसाधन का दुरूपयोग तो नहीं प्रमाणित हुआ, मगर निजी व्यवसाय अवश्य हो रहे थे। सभी संलिप्तों को उनके दर्जे के अनुसार कार्यवाही की गई। हासिद भी संदेह की परिधि मे थे, सो कड़ी फटकार लगाई गई। इस घटना के बाद से उसके समर्पण के कमी आई। आखिर एक दिन उसने काम छोड़ दिया।
अपनी नौकरी के दिनों मे, चारमार गांव के करीब उसने कुछ पेड़ों पर लीज लेकर लाख उत्पादन शुरू करा दिया था। तीन चार पेड़ों और कुछ क्विंटल उत्पादन से शुरू किया व्यवसाय आसपास के ग्रामों मे फैलाया। तकनीकी ज्ञान के संपूर्ण उपयोग से साथ उसका उत्पादन सामान्य से ज्यादा रहता। घीरे घीरे और किसान उसके साथ जुड़े और कांरवा बढ़ता गया। ये वह क्षेत्र था जो लाख के विषय मे जनमित्रम के कार्यक्षेत्र से बाहर था। सो, जहां संस्था नहीं कर सकी, किन्हीं अर्थों मे संस्था का कार्य हासिद वहां पहुचा दिया। लाख उत्पादन के आसपास खरीद बिक्री में भी उसने हाथ आजमाया। तो खुद की कमाई भी बढ़ी।
आज उसकी सालाना आय 8 से 10 लाख रूपये है। दरवाजे पर ब्राण्ड न्यू स्कार्पियो खड़ी है। मकान पक्का हो चुका है। मगर वह हासिद अभी भी वेसा ही है- विनम्र, शर्मीला, बोलते या हंसते समय मुंह को हाथ से छिपाता हुआ। मैने उससे उसका लाख उत्पादन क्षेत्र दिखाने की गुजारिश की। पहुचकर देखा कि किस प्रकार उसने कुछ लोगों को रोजगार दे रखा है, तकनीकें सिखा रखी है। मन प्रफुल्लित हुआ।
वहीं खड़े खड़े एक वादा लिया। हासिद अपने गांव मे इन किसानो और आदिवासियों को जोड़कर एक सहकारी समिति गठित करेगा। अपने विकास मे कुछ और कम सक्षम लोगों को साथ लेकर चलेगा। गांव मे स्व सहायता समूहों को अपना मार्गदर्शन देता रहेगा। जनमित्रम के उदेश्यो को भूलेगा नहीं।
हासिद ने वादा किया है। सहकारी समिति गठन के लिए तो विशेष रूप से उत्साहित दिखा। विदा लेते हुए गाड़ी के रियरव्यू मिरर मे उसकी छवि दिख रही थी। मुझे गुरू फिल्म का अभिषेक बच्चन याद आ रहा था - अगर मै इतना ही उत्कृष्ट कर्मचारी हूं तो ....
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Contributed By Manish Singh
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