Friday, January 24, 2014

कृपा आ रही है ..

पहले उनका नाम था संतोषी, कौशल्या, लक्ष्मीन, जमुना, दुलारी और लेखनी । गुरदा की ये महिलाऐं कृषि मजदूर थी। मांड नदी के किनारें बसे गुरदा मे धान, सब्जी और मूंगफली की खेती साल भर चलती हैं। जिनके पास भूमि है, वे समृद्ध है। जिनके पास नहीं है, वो इन महिलाओं की तरह खेतिहर मजदूरी या पशुपालन करते है। गरीब परिवारों के पास अगर थोड़ी बहुत जमीन थी भी, तो शादी ब्याह बीमारी के चक्करों मे कर्ज की भेट चढ़ गई। 

फिर एक दिन मे सभी ने अपनी अलग-अलग पहचान मिटाने का फैसला किया। मिलकर वो एक हो गईं। नाम रखा चन्द्रहासिनी स्व सहायता समूह। चन्द्रहासिनी नाम है उस देवी का जो महानदी के किनारे चन्द्रपुर मे एक पहाड़ी पर आसीन है। गुरदा की इन देवियों ने दूर बैंठी मां चंद्रहासिनी की कृपा की आकांक्षा तो की, मगर कृपा आने तक इंतजार नही किया। लक्ष्मीन, जो थोड़ी पढी लिखी होने के कारण समूह की सचिव बनी थी, उसके घर मे हर कोई रविवार 2 बजे जमा होता। जनमित्रम के स्थानीय कार्यकर्ता भारत भी वहीं आ जाते। कई तरह की बातें होती, भजन गायन से लेकर कहानी किस्से, दुख तकलीफ और छोटी छोटी खुशियां बाटी जाती। बैठक के अंत मे सभी पचास रूपये जमा करती, जिसे सचिव लक्ष्मीन रजिस्टर और खातों मे लिखती। माह की अंतिम बैठक के बाद जमा हुए रूपये भारत ले जाते और कोआपरेटिव फेडरेशन मे इस समूह के खाते मे जमा कर देते।

भारत के सीनीयर ने जीवन भगत भी एक दिन समूह की बैठक मे आए। समूह सदस्यों की जरूरतों, और जो थोड़े बहुत संसाधन थे उनका आकलन कर कर एक क्रेडिट प्लान तैयार किया। तय हुआ पहला ऋण 45000 का होगा, लेखनी 16000 लेगी ताकि अपनी गिरवी रखी जमीन छुड़ा सके। लक्ष्मीन का घर गांव के चैक पर था। वो वहीं एक दुकान खोलना चाहती थी। वह 16000 लेगी । बचे पैसे से समूह एक जमीन दो साल के लिए लीज पर लेगा, जहां मिल जुलकर खेती की जाएगी। 
 
पैसे दो दिन बाद मिल गए। लक्ष्मीन की दुकान खुल गई , अब वह दुकान मे बैठती है। दिन के डेढ दो सौ कमाती। मजदूरी करती है मगर केवल समूह की जमीन पर। प्लानिंग कमीशन की परिभाषा में अब वह बीपीएल से काफी ऊपर आ चुकी है। 

लेखनी की जमीन वापस आई, तो परिवार ने उस पर खेती शुरू कर दी जिससे 30 हजार का धान निकला है। समूह की जमीन पर भी धान लगा, लगभग 22000 का घान वहां भी आ गया जिसपर समूह की हकदारी है। अभी साल भर के लिए जमीन की लीज बाकी है। अगले साल जो आएगा, पूरा का पूरा मुनाफा होगा। 
  

दो परिवार आबाद हुए और सामूहिक आय भी बढ़ी। धान मडियों मे दे दिया गया है, चेक मिलते ही कर्जा वापस हो जाएगा, तय अवधि से तीन माह पहले ही .... ! बाकी के परिवार भी योजना बनाकर तैयार बैठे है। ऋण के अगले चक्र, या कहे की कि मां चन्द्रहासिनी की कृपा पाने का अगला नंबर उनका है।

गुरदा मे तीन ऐसे स्व सहायता समूह और है। गांव की चालीस महिलाऐं इस धारा मे जुड़ चुकी हैं, और भी जुड़ती जा रहीं है। कुछ दुर्गा मैया के नाम पर तो कोई लक्ष्मी माता के नाम पर कृपा की आंकांक्षी हैं। 


एक बड़े "गाडमैन" टेलिविजन पर समागम करते है और भक्त भक्तिनियों को बताते है कि काला पर्स रखने, या नीली चादर पर बैठने से कृपा आएगी। उन्हे संतोषी, कौशल्या, लक्ष्मीन, जमुना, दुलारी और लेखनी से मिलने की जरूरत है, जो बताऐंगी की कृपा दरअसल कहां रूकी थी। लक्ष्मीन की बेटी दिव्या इसे साफ लफ्जो मे कहती है - एकता नहीं थी ना, तभी कृपा रूकी थी। 

चलिए भई, अब कृपा आ रही है।


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Contributed by Manish Singh

Thursday, January 23, 2014

आखों भर आकाश है ..

बंदगोभी की खूबसूरत क्यारियों के बीच गौरीशंकर पटेल खड़े हैं, दोनो बाहें फैलाए। ये शाहरूखिया अंदाज, थोड़ा दिखावटी, थोड़ा कैमरे के लिए को पोज देने के लिए है जरूर है, मगर उसके इर्दगिर्द फैले छह एकड़ की उंची नीची भूमि मे खिली सब्जियों की क्यारियां, उसकी मुस्कान की तरह असली हैं।
अपने से उम्रदराज कृषकों के कात्यायनी समूह का यह युवा लीडर सुबह मुंह अन्धेरे उठता है। सब्जियों के अपने बगीचे की एक एक क्यारी घूमता है। अपने साथियो को जरूरी निर्देश देकर वहीं कुंऐ पर नहा धोकर तैयार होता है। कुछ समय बाद अपने दो पहियों के ट्रक मे ( जो दरअसल एक स्प्लेण्डर मोटरसायकल है), डेढ दो क्विंटल सब्जियां लादकर 15 से 25 किमी दूर किसी साप्ताहिक बाजार मे चला जाता है।


गौरीशंकर के दादा वेदराम, पास के पामगढ के निवासी थे। मांड के किनारे बसे पामगढ मे उनकी जमीन नदी मे जज्ब हो गई, तो दो-तीन एकड़ जमीन जबलपुर मे ले ली गई। बरसाती नाले के किनारे की पहाड़ीनुमा इस जमीन पर कर्रा का छुटपुट जंगल था। इसी जमीन पर सागभाजी की शुरूआत हुई। दादा के इस काम को व्यावसायिक और तकनीकी स्वरूप गौरी’ांकर ने दिया है। अपने 3 एकड़ जमीन केे आसपास दूसरों को प्रोत्साहित कर सामूहिक काम के लिए उसने कात्यायनी समूह बनाया। साथी भोकसिंह, हीरालाल, मोहितराम और लूतन के जमीनों को जोड़ कर तो रकबा दुगना कर लिया। इससे सभी को फायदा हो रहा है। सब्जियों की बिक्री से इनको दैनिक 1500 तक की शुद्ध आय हो जाती है। 
गौरीशंकर बताते हैं कि गांव चल रहे जलग्रहण कार्यक्रम से सब्जियों की वेरायटी, सीजन आदि की जानकारी हुई। अब वह सब्जी ऐसे लगाता है कि उसका उत्पादन सीजन मे सबसे पहले आए, जब दाम उंचे होते है। इससे फायदा बढ गया है। पहले सिर्फ आलू टमाटर पर जोर था, अब हरी सब्जियों का रकगा बढाया गया है। जलग्रहण वालों ने कृषि विभाग से स्प्रिंकलर दिलवा दिए, जिससे हरी सब्जियां उगाने मे मदद मिलती है। शीघ्र ही वर्मीकम्पोस्ट तैयार करना शुरू करेगा, जिससे खाद आदि का खर्च और घट जाएगा। पिछले साल मे उनके समूह ने 2 बार ऋण लिया है। एक बार पच्चीस हजार और दूसरी बार पचास हजार। इसे पटाने के बाद उसकी योजना एक मालवाहक आटो लेने की है।


जलग्रहण परियोजना के स्थानीय प्रभारी श्री जीवन भगत बताते है कि कात्यायनी समूह की जमीन का एक हिस्सा अभी भी कटाफटा और बेकार है। भूमि सुधार और मेडबंदी के लिए इनका आवेदन जलग्रहण कमेटी अगली बैठक मे रखा जाएगा। वहां सहमति होने पर आवेदक अपना अपना अंशदान जमा कराएगा और काम शुरू करा दिया जाएगा। बगीचे का रकबा, इसके बाद बढ़कर 11 एकड़ हो जाएगा। 

सुबह से खेत और बाजार मे भागते गौरीशंकर की शामें घर मे गुजरती है। पत्नी कविता और तीन बच्चों के के साथ घर मे माता पिता भी हैं। दस साल का बेटा सालिक को वह कृषि वैज्ञानिक बनाना चाहता है। और 6 साल की बातूनी शीला, निश्चित रूप से वकील बनेगी।
अपने बगीचे, व्यवसाय और परिवार के बीच सिमटी जिंदगी मे गौरीशंकर बेहद खुश है। जिसका पूरा क्रेडिट भगवान भोले शंकर को है जो उस पर कृपा दृष्टि बनाए हुए है। 

निदा फाजली की पंक्तियां उसपर सटीक बैठती है 
छोटा कर के देखिए , जीवन का विस्तार,
आँखों भर आकाश है, बाहों भर संसार !!

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Wednesday, January 22, 2014

नवरंगपुर की बकरियां

शाम को जब घर पहुंचा तो पत्नी जी एक स्टेटमेण्ट का निरीक्षण कर रही थी। शेयरो मे इन्वेस्टमेण्ट की डिटेल थी। खबर कुछ अच्छी नहीं थी। नामी गिरामी कंपनियों मे मेहनत की गाढ़ी कमाई आधी हो गई है। बुरा हो इस मंदी का ... । पिछले एक साल से सेन्सेक्स उपर तो हो रहा है मगर हमारे शेयर औधे मुंह पड़े है। 

मूड़ खराब हो, बीवी नाराज हो उस दिन फील्ड जरूर चले जाना चाहिए। पत्नी अभी भी उदास थी। सो सांत्वना दी - कुछ समय इंतजार करो, सब ठीक हो जाएगा। फिर निकल पड़े। 

आज खरसिया जाना है। यहां आसपास के 20 गांवों मे हमारी संस्था जनमित्रम, एक जलग्रहण परियोजना संचालित कर रही है। मिट्टी जल संरक्षण के कुछ काम देखने हैं। ऋण लेकर बढि़या काम कर रहे कुछ महिला स्वसहायता समूहों से भी मिलना है।
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दिन के दूसरे हाफ मे नवरंगपुर पहुंचे। माण्ड के पास पहाड़ी टीले पर बसा ये गांव पानी की कमी से बुरी तरह त्रस्त है। बोर फेल हैं, कुंए सूख जाते हैं, महिलाऐं 2-3 किलोमीटर दूर से पानी लाती हैं। नतीजा - खेती एकफसली है, पशुपालन सीमित है,पूंजी नही है तो कुटीर व्यवसाय भी कम हैं। पांच सौ की आबादी का यह गांव गरीबी और जकड़न का उदाहरण है।

पुरूषों मे शराब की प्रचलन खूब है, मगर गांव की महिलाऐं जागरूक है। कुछ ऐसी धारा है कि कुनबे मे परिवार अलग हो जाते है मगर महिलाऐ बड़ा मिलजुलकर रहती हैं। गांव मे हमारे बनाऐ छह स्वसहायता समूह है। गांव की अधिकांश सास बहुऐं इन समूहों मे जुड़ी है। इनकी एक फेडरेशन है जो रवि कोआपरेटिव (जनमित्रम द्वारा प्रणीत सहकारी समिति ) से संबद्ध है। जहां बैंक इन्हें संपत्ति और कागजों के अभाव मे ऋण नहीं देता, वहां गांव की फेडरेशन  के निर्णय पर रवि कोआपरेटिव, एक कागज के आवेदन पर ऋण दे देता है। 
ग्राम मे जलग्रहण समिति भी बनी है, जिसमे भी पुरूषों की तुलना मे महिलाओं का बाहुल्य है। यह समिति, जलग्रहण परियोजना के पहलुओं पर निर्णय करती है तथा मिट्टी -जल संरक्षण  के कार्यों  क्रियान्वयन करती है। प्रथम, इस कमेटी से कार्यों और योजनाओं पर ही चर्चा हुई। इसके बाद हम पहुचे गणेशि बाई के घर। 

गणेशि बाई का मिट्टी का घर, जिसके आगन मे हम बैठे, गाय का कोठार और बकरियों का शेड बना था। इसके आसपास के घरो की महिलाओं ने चंद्रहासिनी समूह बना रखा है। अप्रेल 2013 मे गठित इस समूह मे अध्यक्ष रामबाई हैं तो सचिव भोजकुमारी। समूह की महिलाऐं 50 रू साप्ताहिक बचत करती है, और इस प्रकार 10 महिलाऐ मासिक रूप से 2000 रू बचा कर कोआपरेटिव मे आवर्ती खाता खोलकर जमा किया है। सभी परिवार या तो भूमिहीन हैं या 2-3 एकड़ असिचित टिकरा के पट्टेदार। 

भोजकुमारी ने बात करनी शुरू की। समूह ने 8 माह पहले 45000 का ऋण लिया था। इससे बकरियां खरीदी गईं।देसी बकरियां यहां अच्छा व्यवसाय है। साल भर मे दो बार बच्चे जनने वाली देसी बकरियां, 1 साल की उम्र तक तीन साढे तीन हजार मूल्य की हो जाती है। इन्हे साधारण पत्ते, घासफूस खिलाकर बढाया जा सकता है। इतने मे गणे’ाी चारे की एक डाल को लिए आगे आती दिखी, और पीछे पीछे बकरियों का रेला। समूह के पास अभी लगभग 25 बकरियां हैं। इन्हे उचित समय पर बेचा जाएगा। लगभग आने वाले तीन चार माह मे 1 लाख रूपये कमाने की आशा  है। मान लीजिए साल भर मे दोगुने से अधिक मुनाफा ... 

समूह के रजिस्टर आदि चेक किए। सबकुछ दुरूस्त था। बकरियों के टीकाकरण आदि को लेकर कुछ बातचीत हुई। फिर हम वापसी के लिए चल पड़े। 
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गांव से निकल कर मुख्यमार्ग पर आते हुए दिमाग मे कौधा - पत्नी जी को कहा जाए कि शेयर बेच कर कुछ बकरियां खरीद लो। कम से कम यहाँ तुम्हारा पैसा डूबेगा नहीं।   
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Contributed By : Manish Singh

समर अभी शेष है ...

देश की राजनीति मे "आम आदमी" का जुमला बड़ा प्रचलित और गरमागरम विषय हो चुका है। हर किसी की अपनी परिभाषाऐं ओर अपने मापदण्ड है। इस जुमलेबाजी और बौद्धिक बहसों से निर्लिप्त वे लोग है, जो सुनहरे भविष्य की तलाश मे अपने जीवन और परिवेश से जूझते, हारते, जीतते अपनी यात्रा जारी रखे हैं। जीवन के वसंत की मरीचिका का पीछा करता हमारा बसंतलाल भी है। बसंतलाल वही - जो आम है, भारतीय है, और जिजिविषा से भरा है। 
रायगढ से 25 किमी दक्षिण मे पूजीपथरा का औद्योगिक पार्क जहां खड़ा है, उसके नीचे बसंतलाल निषाद की तीन एकड़ जमीन हुआ करती थी। गांजे के शौकीन पिता लोधूराम ने ये जमीन मात्र तीस हजार मे किसी बिचौलिये को बेची थी, सो नौकरी मिलने का सवाल नहीं था। भाई आशाराम ने जहां ड्राइवरी का पेशा अपना लिया तो बसंत अपने मामा के गांव, खरसिया तहसील के गुरदा मे आ बसे।

छठवीं पास अकुशल व्यक्ति को देहात में काम क्या मिलता, सो खेतों मे मजदूरी शुरू की। एक डिसमिल जमीन लेकर एक झोपड़ी बनाई। फिर एक मवेशी विक्रेता ने उसे अपने लिए काम दिया। गांव देहात से मवेशी छांटकर वह सौदा करवाता, पशु बाजारों तक पहुंचाता और बदले मे थोड़ी दलाली मिलती।

एक दिन बसंत की पत्नी जम्बोबाई को पशुविभाग की ओर से कुछ चूजे मुफ्त मिले। घर मे इन्हे पाला गया। बसंत को कुछ रूचि हुई तो रायगढ़ जाकर विभाग के कुक्कुट पालन केन्द्र घूम आया। दिमाग मे योजना बनी, मगर पूंजी का टोटा था। गुरदा की जलग्रहण कमेटी कुछ लोन वोन देती है, ऐसा पता चला। सरपंज और कमेटी अध्यक्ष से बोल-बाल के केस बनवा लिया। बीस हजार का लोन मिला। बसंत ने अपनी झोपड़ी के एक हिस्से मे ही 200 चूजे रखे। इतने चूजे छोटे से कमरे मे समा नहीं पाते थे। तो किया ये, कि छोटे चूजे थोड़े बड़े हो जाते तो दूसरे कमरे मे शिफ्ट कर दिया जाता। और बड़े हो जाते तो बेच दिए जाते। देखने वाले को समझना मुश्किल था कि घर बसंत का है, या चूजों का। जैसे तैसे सारे चूजे बड़े हो गए, थोड़ी बहुत कमाई भी हुई , लोन भी चुक गया। मगर खास कुछ बचा नहीं। 
मगर चस्का लग चुका था। इस बार थोड़ी बड़ी पूंजी लगाने का इरादा था, जो जलग्रहण कमेटी के बूते से बाहर था। कोआपरेटिव मे बात हुई तो पता चला कि जमा के चार गुने के बराबर लोन मिल सकता है। सो जम्बों के गहनों की पिटारी गिरवी रखी गई। दस हजार का इंतजाम हुआ तो कोआपरेटिव मे जमा किया गया। नतीजतन चालीस हजार मिल गए। इस बार आंगन मे बाड़ा बनाया और 500 चूजे रखे। काम चल निकला। घर के पास मौलश्री के पेड़ पर निषाद मुर्गा फार्म का बोर्ड लग गया। रायगढ के "कौशिक सेठ" से सीधे डीलिंग शुरू हो गई। इधर जम्बो ने भी कुछ बकरियां पाल ली, सो इनसे भी कुछ कमाई बढ़ रही है। आंगन का बाड़ा तोड़कर बडा किया जा रहा है ताकि 1000 चूजे रखे जा सकें। बसंत अपने चूजों को बड़ी सफाई से रखता है, टीकाकरण करवाता है-एक रानीखेत का, एक डंगबोरो का और एक ठो और, जिसका नाम उसे नहीं मालूम है। अपने चूजों का वह विटामिन भी देता है।

बसंत अपनी कहानी सुना रहा था, कि मैने पूछ लिया - तुम्हारे कितने बच्चे हैं बसंत? 
बसंत के जोश मे ठहराव आ गया। बच्चे नहीं हैं साहब ... । वैवाहिक जीवन के दस-ग्यारह साल के बाद भी संतान न होना "ईश्वर की मर्जी" बताई गई। तभी पास खड़ी जम्बोबाई बगल की कोठरी मे गई, और गोद मे कुछ उठा लाई। गोद मे पड़े मासूम जीव सिमट रहा था, और चमकीली आंखो से देख रहा था। प्यारे से उस खरगोश को दिखाकर जम्बो बोली - इन्हें ही पाल रहे हैं साहब। अंदर दो बच्चे और हैं। उसकी आंखों मे "ईश्वर की मर्जी" को हरा देने का संतोष था।

 बसंत भी बगल मे जा खड़ा हुआ। मैने तुरंत कैमरे की ओर हाथ बढाया, आखिर एक क्लिक की तो बनती है। 


निकलते हुए मैने पूछा - बसंत, इस बार अच्छा कमा लोगे तो क्या खास खर्च करोगे।
 
-"जम्बों की गहनों की पिटारी को छुड़वाउंगा साहब.. "

बहरहाल, बीपीएल की सीमा और आम आदमी-खास आदमी की परिभाषा पर बहसें जारी है। मगर हमारा खास आदमी तो जीवन के वसंत की मरीचिका का पीछा करता हमारा बसंतलाल है। बसंतलाल वही - जो आम है, भारतीय है, और जिजिविषा से भरा है। जो रोटी रोजी, व्यवस्था और ईश्वर से लड़ रहा है, अपनी पत्नी के गिरवी रखे गहनों की पिटारी के लिए...

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Contributed By Manish Singh

Sunday, January 5, 2014

बढ़ते रहो हासिद, हँसते रहो हासिद..


अभिषेक बच्चन की मशहूर फिल्म 'गुरू' के शुरूआती हिस्से मे एक सीन है. हीरो अपने एम्प्लायर से कहता है - 'अगर मै इतना ही उत्कृष्ट कर्मचारी हूं, तो फिर यही काम अपने लिए क्यो ना करूं'। यहां से वह अपनी नौकरी छोड़कर स्वयं का व्यवसाय शुरू करता है। बायोपिकनुमा फिल्म का यह सीन, हीरो की जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट है।हासिद की कहानी बरबस ही उस सीन की याद दिलाती है। लेकिन हासिद की कहानी कहीं ज्यादा दिलचस्प है। 

लगभग 10 साल पहले जाली नोटों का एक प्रकरण सुर्खियों मे आया था। कुछ आरोपी पकड़े गए थे। जनमित्रम के द्वारा संचालित मितानिन नाम के एक सामुदायिक स्वास्थ्य आधारित कार्यक्रम की एक कार्यकर्ता का पति भी प्रकरण मे आरोपी था। रायकेरा गांव मे चल रहे प्रशिक्षण के दौरान वह अपनी पत्नी को छोड़ने आया था। मुझे अभिवादन करने के लिए कुछ क्षण रूका और बाहर चला गया। दिन भर गहमागहमी के दोरान कहीं से यह बात खुली। शाम को मैने पहल की, तो पति पत्नी ने इस विषय पर अपना पक्ष बताया। युवक कुछ आहत, कुछ शर्मिन्दा सा था। घटना के प्रकाश मे उसे कहीं नौकरी मिलनी मुश्किल थी। मैने उस क्षेत्रीय सुपरवाइजर के रूप में रख लिया। 

समय गुजरा, और लाख उत्पादन के लिए एक विशेष अभियान को जनमित्रम ने भारत सरकार की मदद से संचालित किया। अच्छे कार्यकर्ता इस कार्यक्रम मे स्थानांतरित किए गए। हासिद भी उनमे था। आगे आने वाले तीन साल का समय, गहन प्रशिक्षणों का दौर था। कार्यकर्ता भारतीय लाख अनुसंधान संस्थान रांची से प्रशिक्षण लेते थे और फिर आकर स्वसहायता समूहो, किसानों को प्रशिक्षण देते। लाख बीज, उन्नत उपकरण ओर मानिटरिंग से जिले मे लाख का उत्पादन तेजी से बढा। सबसे तेज वृद्धि घरघोड़ा और धर्मजयगढ के इलाको मे हुई। यह अधिकांश क्षेत्र हासिद गुप्ता संभाल रहे थे। 


उत्पादन बढने से कीमतें गिरने का सिलसिला शुरू हो गया था। नतीजतन संस्था को हस्तक्षेप करना पड़ा। रायगढ़ एकीकृत शैलाक संघ की स्थापना की गई। प्रोसेसिंग और भण्डारण की व्यवस्था जमाकर , लाख की खरीदी स्व सहायता समूहों के माध्यम से प्रारंभ की गई। कंपनी एक्ट मे पंजीकृत इस संघ को संचालन करने के लिए व्यवासायिक गुणो वाले कार्यकर्ताओं की आवश्यकता थी। हासिद फिर एक बार श्रेष्ठ विकल्प था। कंपनी ने अपना काम शुरू कर दिया। पूंजी सीमित थी, पर महिला समूहों का सहयोग था। रायगढ़ की लाख, बरास्ते बलरामपुर और कलकत्ता, विदेशों सफर तय करने लगी। काम संतोषजनक था। 


एक दिन पता चला कि कुछ कार्यकर्ता संस्थागत संसाधनों का उपयोग, निजी लाख व्यवसाय में कर रहे हैं। जांच परख करने पर कुछ सत्यता मिली। संस्था के संसाधन का दुरूपयोग तो नहीं प्रमाणित हुआ, मगर निजी व्यवसाय अवश्य हो रहे थे। सभी संलिप्तों को उनके दर्जे के अनुसार कार्यवाही की गई। हासिद भी संदेह की परिधि मे थे, सो कड़ी फटकार लगाई गई। इस घटना के बाद से उसके समर्पण के कमी आई। आखिर एक दिन उसने काम छोड़ दिया। 


अपनी नौकरी के दिनों मे, चारमार गांव के करीब उसने कुछ पेड़ों पर लीज लेकर लाख उत्पादन शुरू करा दिया था। तीन चार पेड़ों और कुछ क्विंटल उत्पादन से शुरू किया व्यवसाय आसपास के ग्रामों मे फैलाया। तकनीकी ज्ञान के संपूर्ण उपयोग से साथ उसका उत्पादन सामान्य से ज्यादा रहता। घीरे घीरे और किसान उसके साथ जुड़े और कांरवा बढ़ता गया। ये वह क्षेत्र था जो लाख के विषय मे जनमित्रम के कार्यक्षेत्र से बाहर था। सो, जहां संस्था नहीं कर सकी, किन्हीं अर्थों मे संस्था का कार्य हासिद वहां पहुचा दिया। लाख उत्पादन के आसपास खरीद बिक्री में भी उसने हाथ आजमाया। तो खुद की कमाई भी बढ़ी। 


आज उसकी सालाना आय 8 से 10 लाख रूपये है। दरवाजे पर ब्राण्ड न्यू स्कार्पियो खड़ी है। मकान पक्का हो चुका है। मगर वह हासिद अभी भी वेसा ही है- विनम्र, शर्मीला, बोलते या हंसते समय मुंह को हाथ से छिपाता हुआ। मैने उससे उसका लाख उत्पादन क्षेत्र दिखाने की गुजारिश की। पहुचकर देखा कि किस प्रकार उसने कुछ लोगों को रोजगार दे रखा है, तकनीकें सिखा रखी है। मन प्रफुल्लित हुआ। 

वहीं खड़े खड़े एक वादा लिया। हासिद अपने गांव मे इन किसानो और आदिवासियों को जोड़कर एक सहकारी समिति गठित करेगा। अपने विकास मे कुछ और कम सक्षम लोगों को साथ लेकर चलेगा। गांव मे स्व सहायता समूहों को अपना मार्गदर्शन देता रहेगा। जनमित्रम के उदेश्यो को भूलेगा नहीं। 


हासिद ने वादा किया है। सहकारी समिति गठन के लिए तो विशेष रूप से उत्साहित दिखा। विदा लेते हुए गाड़ी के रियरव्यू मिरर मे उसकी छवि दिख रही थी। मुझे गुरू फिल्म का अभिषेक बच्चन याद आ रहा था - अगर मै इतना ही उत्कृष्ट कर्मचारी हूं तो ....

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टेक-सैव्वी फार्मर ..

आठ दस साल पहले टेक सैव्वी होना बड़ा फैशनेबल हुआ करता था। टेक सैव्वी मैनेजर, टेक सैव्वी नेता, वो कहलाते थे जो कि आइटी के उपकरण, जैसे लैपटाप , इन्टरनेट आदि का लकदक इस्तेमाल करते थे। टेक सैव्वी होना बड़ा सम्मानजनक और अपनी उच्चता दिखाने करने का तरीका था। ठीक वैसे ही जैसे आजकल हम एंड्राइड मोबाइल के नए माडलों को प्रदर्शन करके खुश होते हैं। 

मगर बरौनाकुंडा के निवासी किसान उम्मेद राठिया को टेक-सैव्वी क्यो कहा जाए। दो लड़को और एक लड़की के पिता, मिट्टी के घर मे रहने वाले उम्मेद को सरकारी भाषा मे सीमांत किसान कह सकते है। विरासत मे मिली 15 एकड़ भूमि मे से लगभग 5 एकड़ खेत हैं तो बाकी पड़त भूमि है। तीन चार साल पहले जनमित्रम मे कार्यरत स्थनीय युवक कृपाल सिंह ने उसे बाड़ी कार्यक्रम की जानकारी दी। फलदार पौधों के रोपण से संबंधित इस योजना मे कृषि तकनीक सीखने का अच्छा अवसर मिलता है।



बाड़ी कार्यकृम में उम्मेद को भी मौका मिला। आसपास के जिलो मे कु छप्रशिक्षण भ्रमण, कृषि विज्ञान केन्द्र के वैज्ञानिको से बार बार मिलना जुलना और खेती किसानी को बढावा देने वाले सरकारी अधिकारियों से संपर्क के अवसर मिले। सातवीं पास कृषक में नयी उत्सुकताऐं जागी। मौकों का फायदा उठाना शुरू किया। जहां अधिकांश कृषक हल बैल या ट्रेक्टर से जुताई करते हैं, वहीं उम्मेद ले आया पावर टिलर। कई लाख के ट्रेक्टर का काम पावर टिलर बखूबी कर सकता है। तुर्रा ये, कि सब्सिडी मे साठ हजार का ही मिल गया। उसकी ख़ुशी हमारी उस ख़ुशी से कम नहीं जो हमें ३५००० के आईफोन के फीचर १५००० के सैमसंग में मिलने पर होती है। 

बाड़ी कार्यक्रम मे संस्था ने कुंआ खोदकर दिया था। जहां बाकी किसान पानी ढोकर सिंचाई करते हैं, उमेद ने लगवाया ड्रिप सिस्टम। अब पानी तो क्या, दवा, खाद सबकुछ ड्रिप के द्वारा दिया जा रहा है। सरकारी सब्सिडी यहां भी मिली। आठ एकड़ पड़त भूमि मे से आधी अब बढि़या बागान मे बदल चुकी है। पौधों की बढोतरी और सभी किसानो से ज्यादा है। 





आप उम्मेद से मिलेंगे तो वह आपको अपना पावर टिलर जरूर दिखाएगा। ड्रिप सिस्टम भी आपको समझाएगा, एक गर्व भरी मुस्कान के साथ। गर्व करे भी क्यांे न, आखिर ये चीजे उसके पास है, आपके पास नहीं। 



जाते जाते उसकी पत्नी फूलकुंवर से जरूर मिलिएगा। वह आपको अपना स्मोकलेस चूल्हा दिखाना चाहेगी। आखिर वह पतिदेव से कम "टेक सैव्वी" थोड़े है।
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क्या आप पांचवी पास से तेज हैं ..?

चालीस साल के 'युवा' किसान नकुल साय अपनी टंगिया को कंधे मे चिपकाए, साम्राज्य का भ्रमण कर रहे है। बरौनाकुण्डा गांव की तीन एकड़ भूमि मे इनकी बादशाहत चलती है। हर एकड़ पीछे 25 आम, १५ काजू और 10 नीबू के पौधे इनकी प्रजा हैं। राज्य की सीमाओं की मजबूत रवाई, बेशरम की बुआई और कांटेदार बबूल से किलेबंदी की गई है। किले के प्रवेश द्वार पर बांस और टिन का मजबूत दरवाजा है जिस पर लगे चिटपुटिया ताले को खोले बगैर कोई घुस नहीं सकता। सावधान, इसकी चाभी सिर्फ नकुल साय के पास है। 

प्रजा हट्टी कट्ठी, अपनी उम्र से ज्यादा कद काठी की है। उनकी प्यास बुझाने के लिए कुंआ खोदा गया है, पंप और पाइपलाइन लगाई गई है। अब इतना कुछ है तो राज्य की आर्थिक स्थिति मजबूत करने को मटर, गोभी, टमाटर, मिर्च, मूंगफली, हल्दी की खेती करना लाजिमी था, सो वो भी है। बीस हजार कमा चुके हैं, तो पैतीस हजार का गणित तैयार है। 

भरा पूरा राज्य है तो चिंताऐ भी तो होनी चाहिए। वो भी है। रवाईबंदी गर्मियों मे सूखकर कमजोर पड़ जाएगी तब अड़ोस पड़ोस के घुसपैठिए पशुओ से खतरा हो सकता है। नकुल चाहते है कि कुछ लोन-वोन मिल जाए तो पूरे खेत की बाड़बंदी कंटीले तारो से करवा दें। इस विषय पर कोआपरेटिव के मैनेजर साहिब से शिखर वार्ता अंतिम दौर मे है। 

पांचवी पास आदिवासी, नकुल का नाम माता पिता ने चाहे जो सोचकर रखा हो, पांडवों की तरह खांडवप्रस्थ को इन्द्रप्रस्थ बनाने का काम उन्होने कर डाला है। पुरखौती मे ये बादशाहत उन्हे नही मिली थी। मिली थी तो बमुश्किल 9 एकड़ जमीन जिसमे 7 एकड़ टिकरा भूमि थी। 2011 मे जनमित्रम के बाड़ी कार्यक्रम मे स्वयं एवं पुत्रों तथा पुत्रों सहित शामिल हुए उसमे तीन एकड़ भूमि मे बागान लगाया। उम्मीद नहीं थी कि इस भूमि मे कुछ हो सकेगा। मगर संस्था ने मिट्टी परीक्षण करवाने के बाद उचित खाद और दवाईयां दी। फलदार पौधों के लिए एक क्यूबिक मीटर के गढ्ढे खोदे गए। पौधों मे उचित अंतराल रखते हुए रोपण किया। पानी की व्यवस्था हुई। अंतर्वर्ती फसलों के चयन मे भी सलाह मिली। देखते ही देखते मिट्टी ने अपना रंग बदलना शुरू किया, और नकुल साय ने भी। प्रोत्साहन और आत्मविश्वाश की नियमित खुराक ने नकुल साय को शहंशाहों सा अंदाज दे दिया है।

नकुल के पिता नूतन साय ने 1985 के आसपास किसी सरकारी विभाग की मदद से 1 एकड़ मे बागान लगाया था। वहां पौधे तो बड़े हो गए है मगर फल अधिक नहीं आते। नकुल इसका कारण बताते है - बा (पिता) ने वृक्षों केे बीच अंतराल बहुत कम रखा था। इस कारण पौधों को धूप और मिट्ठी से पोषण ठीक से नहीं मिल पाता। मैने यह गलती नही की। 

नकुल की पत्नी लच्छनबाई के साथ परिवार मे दो पुत्र राम सिंह तथा ओमप्रकाश और दो पुत्रियां जयललिता तथा ओम कुमारी है। अपने पौधों को समान प्यार और बढोतरी देने वाले नकुल ने घर पर भी बेटे और बेटी मे कोई भेद नहीं किया। बडा बेटा पढ़लिख कर हाल ही मे वन विभाग का "नाका साहब" बन चुका है। छोटा बेटा अभी आठवी में है। बड़ी बेटी जयललिता जहां अपने मेरिट के दम पर आइटीआई कर रही है तो छोटी बेटी बारहवीं मे है। 

रायगढ़ जैसे जिले मे जिसने विगत दस वर्षों मे कन्या भू्रण हत्या के मामले मे राज्य मे सबसे उंचा स्थान पा चुका है वहां नकुल साय जैसे लोग समाज को राह दिखाने वाले है। नकुल से मिलकर निकलते हुए बस यही ख्याल दिमाग मे कौंध रहा था - क्या हम इस पांचवी पास से तेज हैं?


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Contributed by - Manish Singh
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