Friday, December 27, 2013

कौन थे , क्या हो गये, और क्या होंगे अभी..?

शायद एक दशक से अधिक हो गया जब पहली बार नवीन जिंदल की तस्वीर देखी थी. इंडिया टुडे के अन्दर के पृष्ठ पर छपी एक खबर थी. जहाँ भारतीय झंडे के बैक ग्राउंड में एक सुदर्शन युवक मुस्कुराता हुआ खड़ा था. खबर थी की इस लड़के के प्रयासों  से आम भारतीय को अपने देश का झंडा फहराने की आज़ादी मिली है. 
मुस्कुराता हुआ वो लड़का अमरीका से पढ़कर लौटा था. कभी कभी अपने उद्योगपति पिता  की जीप खुद चलाता था. पिता के बाद औद्योगिक विरासत भी उसी अंदाज़ में संभाली. देखते देखते मझोला उद्योग देश के सिरमौर उद्योगों में शुमार हो गया. खबरे और तस्वीरे आती रही , कभी देश के समाचार पत्रों  में तो कभी विदेशी पत्रिकाओ में . अन्दर के पृष्ठों से मुखपृष्ठ की ये यात्रा  हम एक सकारत्मक संवेदना के साथ देखते रहे. 
कभी कभार स्थानीय समाचार पत्रों की हेड- लाइन और कुछ आन्दोलनजीवी  प्राणी हल्ला मचाते थे ! प्रदूषण कर दिया, जमीन ले ली, पानी ले लिया, मुआवजा दो - फिर से दो और ज्यादा दो ! धरने , भूख हड़ताल, चक्काजाम होते रहे. हर सुबह हम पढ़ते रहे. कभी कभार  कुछ लोगो के लिए सहानुभूति हुई, मगर इतनी नहीं की जेहनो दिमाग पे तारी हो. All these are part of game  .  तेज विकास  की कीमत तो देनी ही होगी , दे रहे हैं!
फिर शायद उद्योगों का विरोध एक किस्म का फैशन है. सिंगूर हो या तमनार, कुछ लोगो का self promotion और value addition की schme है . चुके हुए पत्रकार , पार्टी बाहर नेता, तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ताओ, और विरोध को खाने सोने पहनने  वालो का चर्चा में रहने को इजाद किया एक तरीका है. दशक भर पहले इंडिया टुडे की उस तस्वीर के प्रति सकारात्मक संवेदना ने शायद आँख और कान में पर्दा दल रखा था. 
फिर एक काम धाम से भरे दिन एक फ़ोन आया. मोबाइल की स्क्रीन  पे वो ही आन्दोलंजीवी मित्र का नाम  था. " फिर टाइम बर्बाद" के अंदाज में फ़ोन उठाया . मित्र हड़बड़ी में थे , बोले - रमेश भाई को गोली मार दी. मै अवाक् था. घबराकर पुछा - जिन्दा हैं?? जवाब मिला- अभी तक तो हैं, अस्पताल लेके  गये हैं. दौड़ कर अस्पताल पंहुचा तो जबजस्त भीड़ . ICU के अधखुले दरवाजे से बिस्तर पर पड़े आदमी को देखा. सदा मुस्कुराने वाला जीव अचेत पड़ा था. अन्दर जाने की हिम्मत नहीं हुई. परिवार सदमे में था. सांत्वना देना भी क्रूरता लग रही थी, सो कुछ कहे बिन लौट आया. 
कुछ दिनों बाद जब रमेश जी स्वस्थ होकर , व्हील चेयर  पे सवार हो लौटे. अब तक पुलिस ने जिंदल कम्पनी के सिक्यूरिटी कम्पनी के लोगो को इस मामले में गिरफ्तार कर चुकी थी.  अगवानी और सम्मान प्रकट करने हम भी गए.  कुछ लोग वहां नवीन जिंदल का पुतला ले आये. सारा शहर घुमाकर गाँधी प्रतिमा के सामने फूँक डाला. कार की विन्दस्क्रीन के पीछे से हम ये नज़ारा देखते रहे. इन्ही क्षणों  में , कुछ किलोमीटर की दूरी पर नवीन जिंदल , तरह तरह की चेरटी गतिविधियों से अपने पिता का जन्मदिन मना रहे थे. अगले दिन उनकी भी न्यूज़ आई, पुतले की भी. हमने पुतले की खबर पहले पढ़ी. सकारात्मक संवेदना  पाला  बदल चुकी थी.  ख़ारिज किये आन्दोलन जीवी  अचानक हीरो लगने लगे और भगाए हुए नेता शर्द्धेय..... जल्द ही हमने अपने आपको भी तख्ती लिए उनके साथ सड़क पर पाया.  दोस्त यार और परिवार चोंक गए और शुभचिन्तक भयभीत.  

नजर में  ये परिवर्तन और मन में आक्रोश लिए मैं अकेला नहीं हूँ. इस डेढ़ दशक में छोटे जिंदल बाबु  ने हर बर्बर घटना के बाद कितनो की सकारात्मक  संवेदना खोयी है. सड़क पे तख्ती लेकर निकलने वाले अभी तक कम है मगर पुतला जलते देख मुस्कान छिपाने वाले दिनोदिन घट रहे हैं. यत्र तत्र लगे आत्मश्लाघा के होर्डिंग्स कहते है की अब साम्राज्य केवल इस प्रदेश या देश तक सिमित नहीं रहा. जो कम्पनी की नौकरी में हैं , वो भी जानते है की नफरत और घृणा का ये आलम भी ग्लोबल होता जा रहा है. 

सकारात्मक  संवेदना वाले बचे लोग आज भी वही  भी तर्क देते हैं जो पहले लिखे जा चुके है. पर यदि विकास की कीमत प्रदुषण सूंघकर दी जानी  है, तो इसे स्वीकार या  मना करने की वक्तिगत स्वतंत्रता सबको है. वहां  तक बहुत लोग तैयार थे. मगर नागरिक अधिकारों का हनन और कानून के राज के खात्में की कीमत पर ये विकास बहुत महंगा है i मैं तो नहीं खरीदूंगा . 

लोग जानते हैं की रायगढ़ से अंगुल तक रमेश गोलीकांड जैसे मामलो में , जिसमे कम्पनी  के प्रत्यक्ष या परोक्ष  भृतयोद्धा पोलिसे द्वारा आरोपित हैं ,  नवीन जिंदल की सीढ़ी संलिप्तता प्रमाणित होना दूर की कौड़ी है! मगर ये कानूनी पहलु है.  जनमानस को ये गले उतरना कठिन है की कठोर केंद्रीकृत कम्पनी के निचले स्तर  के सेवक कंपनी की खिलाफत करने वालो को सबक सिखाने के लिए कांट्रेक्ट किलर से संपर्क स्वेच्छा  कर आयेगा. चलो यदि यही सच है तो फिर रायगढ़ से अंगुल तक आपराधिक गतिविधियों में लिप्त  ऐसे अवज्ञाकारी, रिस्क प्रोन  सेवको को कानून के सुपुर्द करने में क्या समस्या है. साफ़ है की इन सेवको की ऐसी समस्याओ ( या समस्या दाताओ) को किसी भी कानूनी गैर कानूनी तरीके से निपटने की छूट है, और ये स्वीकृति देना , छोटे मोटे लोगो की बस की बात नहीं.  

किसी भी स्थिति में , ऐसा व्यक्ति जो संसद में विराजमान हो, देश के कानून का निर्माण करता हो ; उसके निजी साम्राज्य में मानवीय मूल्यों और कानून के प्रति हिकारत का ये बाव बड़े खतरनाक  भविष्य का संकेत हैं. मैं उस क्षण  को डरता हूँ, जब आज से दस बीस या तीस साल बाद ये युवा संसद किस प्रमुख संवेधानिक पद पर बैठा होगा !  तब ................???? जवाब रमेश अग्रवाल की जांघ पर खुदा  है 

फिलहाल, जहा गढ़हो के लिए मेयर और प्याज के लिए सरकार दोषी होती है. वहा मूढमति और डंडा-बन्दूकधारियों को पब्लिक मैनेजमेंट  की छूट देकर शीर्ष नेतृत्व कोर्ट से भले बच जाये,  जनता की अदालत  में उसके पुतलो की शामत  तो तय है. भारतीय तिरंगे की पृष्ठभूमि  में मुस्कुराते उस सुदर्शन युवक की ऐसी दर्दनाक यात्रा का साक्षी होना दुःख की बात है. 
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पुनश्चा:  लियोनार्दो डा विन्ची को एक बार किसी चर्च में  देवदूत की तस्वीर बनाने का काम मिला. एक युवा पादरी को माडल बनाकर उसने चित्र बनाया. बीस साल बाद उसे, पुराने चित्र के पास शैतान का चित्र बनाने को कहा गया. कारागार  में जाकर उसने सबसे भीषण हत्यारे को लिया. उसे मॉडल बनाकर चित्र पूरा किया. चित्र पूरा होने के दिन उस मॉडल ने आत्महत्या कर ली.

सुसाइड नोट से पता चला की ये वो ही आदमी था जिसने सालो पहले  देवदूत की तस्वीर के लिए मॉडल चुना गया था.
वह शर्मिंदा था....

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Contributed By : Mr Manish Singh
ritumanishsingh@gmail.com
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